तो आइये दोस्तों आज हम जानेंगे सदगुरु के बारे में
उनकी जीवनी के बारे में।
सद्गुरु का जन्म 3 सितम्बर 1957 को कर्णाटक राज्य के मैसूर में हुआ था।
सद्गुरु का असली नाम क्या है – इनका उपनाम सद्गुरु था। इनका मूल नाम जग्गी वासुदेव था।इनके पिता का नाम डॉ वासुदेव था और इनकी माता का नाम शुशीला देवी था। इन्हे बचपन से ही लिखने का पढ़ने का घूमने का और पेड लगाने का बहुत ही ज्यादा शौक था। इनकी पत्नी का नाम विजया कुमारी था। इन्हे वर्ष 2017 में पद्म विभूषण अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।
सद्गुरु का असली नाम क्या है – इन्होने अपने विचारो से लाखो लोगो की जिंदगी को बदल दिया था। जो भी भक्त इन्हे भाषण देते हुए सुनता था। तो ऐसा लगता था की बार-बार इनका भाषण को सुबते ही रहे। मन ही नहीं होता था की इनका भाषण को बीच में छोड़ कर जाएँ।
इन्होने ईशा फाउंडेशन की स्थापना की और फिर इस फाउंडेशन के माध्यम से अनेको लोगो की मदद की और उनका जीवन ही बदल दिया।
सद्गुरु का असली नाम क्या है – कही न कही आपने सद्गुरु के बारे में जरूर सुना होगा। अगर नहीं तो मै आज आपको इनके बारे में बताना चाहता हूँ। यह ईशा फाउंडेशन के संस्थापक है और इसके साथ साथ ये योग गुरु एवं लेखक भी थे। इनकी ईशा फाउंडेशन नॉन प्रॉफिटेबल ट्रस्ट है। ये बिना कीसी भी फायदे के ये लोगो की मदद करती है। और उन्हें लाभ पहुँचाती है। सद्गुरु ने पुरे विश्व में अलग अलग देशो में बड़े बड़े कार्यक्रमों के माध्यम से लोगो को लाभ पहुंचने का कार्य करती है। ये लोगो को आध्यात्मिक जीवन जीना और योग की जान कारी देते है।
सोशल मिडिया पर इनके लाखो की संख्या में फ़ॉलोअर्स भी है। ये अपनी ईशा फाउंडेशन के माध्यम से बड़े बड़े आयोजन करती है और लोगो को लाभ पहुंचने का कार्य करती है।
सद्गुरु का असली नाम क्या है – सद्गुरु एक महान लेखक भी है इन्होने बहुत सी कहानिया लिखी है और किताबे भी लिखी है। इन्होने अपनी किताबो के माध्यम से कई लोगो को जीवन जीने का तरीका भी बताया है और लोगो के सभी प्रकार के प्रश्नो के जवाब भी दिए है।
सद्गुरु अपने आसान और सहज तरीके से लोगो को जवाब भी दिया करते थे।
ये अपना सारा कारोबार अपने दोस्तों को सौंप कर भारत की यात्रा पर चले गए थे। इसके बाद ये लोगो को योग सीखाने लग गए और फिर इन्होने अपने आप को एक योग टीचर के रूप में इन्होने अपनी पहचान बना ली।
जग्गी वासुदेव ने वर्ष 1992 में ईशा फाउंडेशन की स्थापना की इस संस्था के माध्यम से इन्होने करोडो की संख्या में पेड़ लगाए। ये आध्यात्मिकता के साथ साथ प्रकर्ति से प्रेम भी करते थे। इन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव सेवा और मानव कल्याण को ही समर्पित किया।
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बीसवी सदी के महान संत कहलाये जाने वाले एवं गुरुदेव के रूप मे प्रसिद्द श्री परमहंस योगानंद जी के लिए नियति ने पूर्व ही मनुष्य के जीवन में उनकी क्या भूमिका रहेगी परमहंस योगानंद योगी कौन थे -और उनका जीवन परिचय।
तो आइये दोस्तों आज हम जानेंगे श्री परमहंस योगानन्द जी के जीवन के बारे में।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में इनका जन्म हुआ इनका मूल नाम मुकुंद लाल घोष था। इनके माता और पिता महान क्रिया योगी लाहिड़ी जी के शिष्य थे। परमहंस योगानंद बहुत महान विभूतियों में से एक थे। जो भारत का सच्चा वैभव भी रहे हैंl अनेको लोग उन्हें साक्षात ईश्वर का अवतार भी मानते थे। अपनी जन्मजात सिद्ध एवं चमत्कारिक शक्तियों से उन्होंने अनगिनत लोगों के जीवन को खुशियो से भर दिया था l लाखों की संख्या में देश में और विदेश में भी लोग उनके भक्त बन गए।
जन्म – 5 जनवरी 1893
जन्म स्थान – गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
पिता – भगवती चरण घोष
गुरु – युक्तेश्वर जी
प्रसिद्द गुरु श्री परमहंस योगानंद जी का जन्म 5 जनवरी साल 1893 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। यह एक अध्यात्मिक गुरु एवं योगी और संत भी थे। इन्होने अपने भक्तो को क्रियायोग के उपदेश दिए और सभी स्थान पर और पूरे विश्व में उसका प्रचार-प्रसार भी किया। उनका मूल नाम मुकुंद लाल घोष था। इनके पिता जी का नाम श्री भगवती चरण घोष था। वह बंगाल के नागपुर रेलवे में बी.एन.आर.में उपाध्यक्ष के समकक्ष के पद पर कार्यरत थे। योगानंद के माता और पिता के कुल 8 संताने थी। ये कुल चार भाई और चार बहिन थी। योगानंद भाइयों में से दूसरे एवं सभी में से चौथे स्थान पर थे। उनके माता जी और पिता जी बंगाली क्षेत्रीय थे। दोनों ही संत प्रकृति के माने जाते थे। इनका परिवार इनके बाल्य काल के समय अनेको शहरों में रहे थे। गोरखपुर में इनके जीवन के प्रथम 8 वर्ष ही व्यतीत हुए।
ईश्वर को पहचानने एवं खोजने की लालसा श्री योगानंद जी को बालयकाल से ही थी।
ईश्वर में श्रद्धा और विश्वाश मनुष्य के जीवन कोई भी चमत्कार कर सकती है। केवल एक मात्र को छोड़कर अध्ययन करे बिना किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होना। श्री परमहंस योगानंद जी दक्षिणेश्वर के माँ काली मंदिर वे अपने गुरु युक्तेश्वर जी के साथ गए थे। वहां काली मां एवं भगवान शिव जी की मूर्ति अति कौशल से निर्माण करी हुई चांदी के चमत्कार सहस्त्रदल रुपी कमल पर विराजमान है। उन्होंने वहां ईश्वर के मातृत्व पक्ष एवं ऐश्वर्या करुणा के माधुर्य को इन्होने जाना था। उन्हें वह पृथ्वी पर ही स्वर्ग के साक्षात देवताओं के प्रतिरूप लगा सगुण ईश्वर एवं निराकार, निर्गुण ब्रह्मा के मतों का संयोग भी प्राचीन उपलब्धि मानी जाती है। जिसका प्रतिपादन हमारे वेदों एव भगवत गीता में भी किया गया है। परस्पर विरोधी विचारों का यह मिलाप मनुष्य के ह्रदय एवं बुद्धि को ही संतुष्ट कर सकता है।
भक्ति एवं ज्ञान मूलतः एक सामान ही है। प्रापत्ति एवं शरणागति सर्वोच्च ज्ञान के ही पद हैं। उन्होंने हमेशा ही जगजननी माता जी को उनके साथ खेलते हुए पाया। संतों की विनम्रता इस बात से ही उपजती है कि वह ईश्वर पर ही निर्भर है। जो एकमात्र हमारा विधाता है। ईश्वर का स्वरूप ही मानव जीवन का आनंद है। आनंद उन सब चीजों में सर्वप्रथम एवं सर्वोपरि है। जिनके लिए आत्मा एवं इच्छाशक्ति तड़पती रहती है।
हिमालय पर जाने हेतु उन्होंने अपने ही सहपाठी अमर की सहायता ली थी। उन्होंने उनसे कहा कि कोई भी बहाना बनाकर तुम अपनी कक्षा से बाहर निकल जाना एवं एक कोई भी घोड़ा गाड़ी किराए पर ले आना और हमारी घर की गली में ऐसी जगह पर आकर ठहरना जाना जहां पर तुम्हें मेरे घर का कोई भी सदस्य देख ना सके। उन्होंने फिर हिमालय पर जाने के लिए अगला दिन का कार्यक्रम तय किया। अनंत दा (भाई) उन पर बहुत कड़ी नजर रखते थे। क्योकि उन्हें यह संदेह था कि योगी के मन में कही भाग जाने की इच्छा है। योगी को यह आशा थी कि हिमालय में उन्हें वे गुरु मिल जाएंगे। जिनका चेहरा उन्हें अपने अंतर्मन के दिव्य दर्शनों में नित्य दिखाई देता था। योगी और उनका मित्र दोनों ही घोड़ा गाड़ी में बैठ कर बाजार की ओर चले गए। वहां से वे यूरोपियन पोशाक को पहन कर वहा से निकले ताकि कोई भी उन्हें पहचान न सकें।
फिर वह रेलवे स्टेशन से ट्रेन का टिकट को लेकर वह दोनों निकल पड़े। फिर उन्हें 10 वर्ष तक लाहिड़ी महाशय के सानिध्य में रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। बनारस में उनका घर योगी का रात्रि के समय का तीर्थ स्थान था। लाहिड़ी महाशय ने अपने जीवन में जो भी चमत्कार किए। उन सब में से एक बात तो स्पष्ट थी। कि उन्होंने अहम तत्व को कभी भी खुद को कारण तत्व या फिर कर्ता कभी नहीं मानने दिया था। सर्वोच्च रोग निवारक की शक्ति मतलब ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण की वजह से गुरुदेव उस शक्ति को अपने से मुक्त रूप से प्रभावित होने को भी सुलभ बना दिया करते थे। मैं संस्कृत भाषा का कभी विद्वान नहीं बन सका केवल आनंद जी ने ही मुझे उससे भी अधिक दिव्य भाषा को पढ़ा कर अधिक ज्ञान देदिया था।
श्री युक्तेश्वर जी ने योगी के ठीक होने के पश्यात कहा कि तुम यात्रा करने के योग्य स्वस्थ हो चुके हो अब हम लोग कश्मीर की यात्रा पर चलेंगे। उसी दिन फिर वे शाम के समय में छह व्यक्तियों का उनका दल उत्तर दिशा की ओर जाने के हेतु गाड़ी पर बैठ कर वहा से रवाना हो गया। उनका प्रथम पड़ाव शिमला में हुआ था। वह सड़कों पर भी घूमे। वहां पर एक वृद्धा आवाज लगा रही थी की स्ट्रॉबेरी ले लो। अपरिचित फलों को अपनी नज़रो से देखकर गुरुदेव के मन का कौतूहल जाग गया। उन्होंने फिर टोकरी भर कर के फल को खरीद लिया एवं पास ही खड़े कन्हाई एवं योगी इन दोनों को दे दिए। योगी ने फल को खाकर देखा लेकिन थूक दिया। और कहा कि गुरुदेव ये फल कितना खट्टा है मुझे तो यह फल अच्छा नहीं लगा। तब गुरुदेव ने कहा अमेरिका में यह फल तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा। वहां एक रात्रि भोजन तुम जिस घर में खा रहे होंगे। उस घर की ग्रहणी तुम्हें मलाई एवं शक्कर के साथ तुम्हे ये फल देगी। तब वह कांटे से कुचलकर तुम्हे स्ट्राबेरी देगी तब तुम कहोगे की कितनी स्वादिष्ट फल है। तब जाके तुम्हें शिमला में आज का ये दिन जरूर याद आएगा। गुरू जी की ये भविष्यवाणी योगी के दिमाग से धूमिल हो गई थी। लेकिन जब अमेरिका जाने के बाद उन्हें ये भविष्यवाणी याद आई। जब वे अमेरिका गए थे तब उन्हें वहा पर श्रीमती एलसी टी. के घर में एक रात्रि के भोजन के लिए उन्हें निमंत्रण दिया गया। वहा पर वही सब कुछ घटना घाटी जो गुरुदेव ने योगी से कहा था।
ईश्वर प्राप्त योगी कभी भी अपने भौतिक शरीर का आकस्मिक त्याग नहीं करते है। क्योकि उन्हें पृथ्वी से अपने महाप्रयाण होने के समय का पूर्ण ज्ञान पूर्व में ही होता है। उन्होंने अपने मृत्यु की भावि सूचना संकेतों में अपने भक्तो को दे दी थी। उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्व में ही ज्ञान हो चूका था। 7 मार्च 1952 को अमेरिका में जब योगानंद जी का भाषण था। जिसमे योगानंद जी ने अपने ही देश भारत की महान महिमा एवं यहाँ की सुख और सुबिधा का बखूबी उल्लेख किया। वही पर योगानंद जी आसमान की ओर देखते हुए नीचे जमीन पर गिर गए। परमहंस योगानंद शांति पूर्ण चिर निद्रा में लीन हो गए। एवं वह समाधि मे विलीन हो गए। उनका पार्थिव देह आज भी फॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क, लॉस एंजेलिस में अस्थायी रूप से सुरक्षित रखा हुआ है। एक धर्म आध्यात्मिक संकल्प, ईश्वर हेतु पूर्ण रूप से समर्पित जीवन, पूर्व एवं पश्चिम के बीच एक सजीव बना हुआ सेतु यह विशेषताएं श्री परमहंस योगानंद के जीवन एवं कार्य की थी।
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गुरुदेव श्री श्री रविशंकर एक मानवीय नेता माने जाते है। और एक आध्यात्मिक गुरु एवं शांति के राजदूत भी माने जाते है। उनकी दृष्टि तनाव मुक्त और हिंसा-मुक्त समाज में लाखों की संख्या में लोगों को दुनिया पर सेवा परियोजनाओं एवं जीवन जीने की कला के पाठ्यक्रम के जरिये से सभी को संयुक्त किया।
गुरुदेव श्री श्री रविशंकर को कोलम्बिया, मंगोलिया एवं पराग्वे का सर्वोच्च नागरिक का पुरस्कार सहित कई प्रकार के सम्मान भी दिए गये है। वह पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता भी है। भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार एवं दुनिया भर के पंद्रह मानद डॉक्टरेट से भी इन्हे सम्मानित किया गया है।
गुरुदेव श्री श्री रविशंकर को विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एवं गुणवत्ता नियंत्रण के भारत योग प्रमाणीकरण समिति के अध्यक्ष भी ये रह चुके है। आप अमरनाथ तीर्थ बोर्ड (जम्मू और कश्मीर सरकार के द्वारा नियुक्त, भारत ) के माननीय सदस्य भी रह चुके है । 500 वीं वर्षगांठ के कार्यकर्म में कृष्ण देव राय के राज्याभिषेक में गुरुदेव स्वागत समिति का अध्यक्ष भी गुरुदेव को ही बनाया गया था।
वर्ष 1956 में दक्षिण भारत में जन्मे श्री श्री रविशंकर प्रतिभावान बालक के रूप थे। चार वर्ष की आयु से ही भगवद्गीता जोकि एक प्राचीन संस्कृत भाषा में लिखा हुआ एक धर्मग्रन्थ है। उसका व्याख्यान भी कर लेते थे। उनके प्रथम गुरु श्री सुधाकर चतुर्वेदी जी थे। जिनका हमारे महात्मा गाँधी के साथ भी बहुत लम्बा सहयोग रहा था। उन्होंने वैदिक साहित्य एवं भौतिक विज्ञान दोनों में ही डिग्री हासिल की हुई है।
कर्नाटक राज्य में स्थित एक शहर शिमोगा में श्री श्री रविशंकर 10 दिन के लिए मौन व्रत करने को चले गए। उसके बाद जन्म हुआ सुदर्शन की क्रिया का जो एक शक्तिशाली श्वास की प्रणाली है। धीरे-धीरे सुदर्शन की क्रिया आर्ट ऑफ़ लिविंग की मुख्य केंद्र बिंदु के रूप में बन गयी। श्री श्री रविशंकर ने आर्ट ऑफ़ लिविंग की स्थापना को एक अंतर्राष्ट्रीय लाभ निरपेक्ष ,शैक्षिक और मानवतावादी के रूप में की। इसके शिक्षात्मक कार्यकर्म एवं आत्मविकास से सम्बन्धी कार्यक्रम मानव के तनाव को मिटाने एवं कुशल मंगल की भावना को उत्पन्न करने के शक्तिशाली साधन को प्रदान करती है। ये प्रणालियाँ केवल किसी ख़ास या किसी एक जन समुदाय को ही आकर्षित नहीं करतीं है। बल्कि ये विश्वव्यापी रूप से हमारे समाज के हर स्तर पर ये प्रभावशाली ही रही हैं।
वर्ष 1997 में उन्होंने आई ए एच वी जोकि मानवी मूल्यों की अंतर्राष्ट्रीय समिति को स्थापित की आर्ट ऑफ़ लिविंग के साथ ही चिरस्थायी विकास की योजनाओं को भी समन्वित करने केलिए मानवीय मूल्यों को विकसित करने केलिए एवं द्वंद्व समाधान करने के लिए भारत अफ्रीका, एवं दक्षिण अमेरिका के ग्रामीण समुदायों में में भी इन दोनों संस्थाओं के स्वयंसेवक संपोषणीय प्रगति की अगवाई भी कर रहे हैं। और 40,212 गाँव तक पहुँच भी ये चुके हैं।
मानवतावादी मार्गदर्शक श्री श्री रविशंकर के आयोजन और कार्यक्रमों ने विभिन्न समाज के लोगों की सहायता की है। जैसे की प्राकृतिक आपदा से प्रभावित हुए लोग आतंकी हमलों एवं युद्ध के उत्तरजीवी लोग द्वंद्व से जूझते हुए समुदायों एवं अधिकारहीन आबादी के छोटे बच्चे। श्री श्री रविशंकर के सन्देश की शक्ति ने आध्यात्मिकता पर आधारित सेवा की एक लहर को प्रेरित भी किया है। एक ऐसी विशाल स्वयंसेवी समुदाय जो ऐसे कार्यक्रमों को पुरे विश्व के संकटमय स्थानों पर आगे तक ले जा रहे हैं।और प्रत्येक समाज के लोगो की मदद भी कर रहा है।
ये एक अध्यात्मिक गुरु के रूप में श्री श्री रविशंकर नें योग एवं ध्यान की जो हमारी परम्परा है उसे से फिर से जागृत करने का कार्य किया है। इन्हें एक ऐसे अनोखे रूप में प्रस्तावित किया जो 21 वीं शताब्दी में अत्यंत प्रासंगिक रही है। और बहुत ही कारगार भी सिद्द हुई है। हमारे प्राचीन ज्ञान को पुनर्जन्म दिया इसके अलावा, श्री श्री रविशंकर ने व्यक्तिगत रूप से एवं सामाज को परिवर्तन करने की नई तकनीकें भी बनायीं गई हैं। इसके अंदर सुदर्शन क्रिया को भी शामिल किया गया है। जिसने लाखो लोगों को उनके तनाव से मुक्ति दिलाने में एवं अपने भीतर की ऊर्जा के स्रोतों को खोजने में मदद की है। एवं नित्य प्रतिदिन के जीवन में भी शान्ति को खोजने में हमारी बहुत सहायता की है। केवल 31 वर्षों में इनके कार्यक्रमों एवं आयोजन और पहलकदमी ने पूरी दिनिया में 152 देशों में 37 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने का कार्य भी किया है।
शान्ति के दूत कहे जाने वाले श्री श्री रविशंकर द्वंद्व समाधान में एक अपनी अहम् भूमिका को अदा भी करते हैं। एवं अपने तनाव एवं हिंसा से मुक्त समाज का सन्देश भी जनसभाओं एवं विश्व सम्मेलनों के माध्यम से प्रचारित भी करते रहे हैं। निष्पक्ष और आप द्वंद्व में फंसे लोगों के लिए एक आशा के प्रतीक भी माने जाते हैं। इनको को ख़ास रूप से श्रेय मिला है। इराक आइवरी कोस्ट कश्मीर एवं बिहार में विरोधी पार्टियों को समझौते करने की बातचीत के लिए एवं मनाने के लिए। श्री श्री रविशंकर को कर्नाटक सरकार के द्वारा कृष्णदेवराय राज्याभिषेक की 500 वी वर्षगांठ पर उनकी स्वागत कमेटी का सभापति भी निर्धारित किया गया था । श्री श्री रविशंकर को अमरनाथ तीर्थस्थल समिति का अध्यक्ष भी बनाया गया था।
अपने पहलकदमी के कार्यक्रमों एवं अभिभाषणों के द्वारा श्री श्री रविशंकर ने निरंतर मानवीय मूल्यों को सुदृढ़ करने हेतु एवं मानवता को सबसे बड़ी पहचान के रूप में समझने की आवश्यकता है। उन्होंने इस बात पर ज्यादा जोर दिया। सभी धर्मों में एवं समुदाय में समन्वय को प्रोत्साहित करना का कार्य भी इन्होने किया। और बहुसांस्कृतिक शिक्षा की मांग भी की।
श्री श्री रविशंकर के काम ने विश्व भर में करोड़ो लोगों के जीवन को बहुत प्रभावित किया है। जाति राष्ट्रीयता,एवं धर्म से परे,होकर एक “वसुधैव कुटुम्बकम” के सन्देश को माना। मानव के भीतरी एवं बाहरी शान्ति दोनों ही संभव हैं। एवं एक तनाव मुक्त जीवन। हिंसा मुक्त समाज का निर्माण करना एवं सेवा और मानवी मूल्यों के पुन:जागरण करना है।
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ओशो के विचार
ओशो के विचार – जैसा की हर महापुरुष के साथ होता आ रहा है। ठीक वैसा ही ओशो के साथ भी होगा। या तो उसे भुला दिया जाएगा या फिर उसे ईश्वर के समक्ष बना दिया जाएगा। किसी को भी भुला देना बुरी बात है। परन्तु किसी व्यक्ति को ईश्वर के समक्ष बना देना भी कोई कम बुरा नहीं है। धर्म एवं ईश्वर से साथ हम सभी का रिश्ता ऐसे समझिए कि कोई हमे उंगली का इशारा करके हमे रास्ता बता रहा है। और फिर हम उस रास्ते पर चलने के जगह उस उंगली की या उस रास्ते की पूजा करने लग जाते हैं। हमने धार्मिक पुस्तकों,धर्मगुरुओं आदि के साथ भी यही किया है। यही हम ओशो के साथ भी जरूर करेंगे। उसे पूजना बंद करिये। उसे आप ईश्वर के समक्ष मत बनाइए। उंगली को नहीं रस्ते को देखिये और उस पर ही चलिए। इसलिए आज हम आप सभी को उनके वो 38 कथन बताने जा रहे हैं। जिनका मानव जीवन में उतना ही महत्त्व रखता है जितना ओशो का विश्व में है। और फिर ओशो के कहे विचारो को पढ़ने के बाद उससे विचारो से प्रभावित होने के बाद ओशो को पूजना एवं उससे प्रेम करना कोई बुरा नहीं। जैसे की आज कल लोग ‘माइकल जैक्सन’ या ‘शाहरुख़ खान’ एवं किसी अनन्य को पूजते हैं। उनके काम के चलते वे जानते हैं। जबकि कि इनकी पूजा करने से कोई इच्छा की पूर्ति नहीं होती है।
तो दोस्तों आइये आज हम जानेंगे ओशो के 38 कथनो/विचारो के बारे में।
1- ओशो के विचार – दुनिय में जो कुछ भी है वो महान है। उस पर किसी का कोई भी अधिकार नहीं हो सकता है और यह सबसे बड़ी मूर्ख बातों में से एक है की जो मनुष्य करता है उस पर मनुष्य अपना अधिकार चाहता है।
2 – मनुष्य के पास जितना काम ज्ञान होगा वह अपने ज्ञान के प्रति उतना ही हठी होगा।
3 – अंधेरा तो प्रकाश की अनुपस्थिति का सूचक है। परन्तु अहंकार जागरूकता की अनुपस्थिति का सूचक है।
4 – साहस अज्ञात के साथ-साथ एक प्रेम का सम्बन्ध भी है।
5 – ओशो के विचार – मनुष्य को किसी के साथ प्रतियोगिता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम जैसे भी हो अच्छे हो।आप अपने आप को स्वीकार करो।
6 – यह दुनिया पूर्ण नहीं है। और यही एक मात्र कारण है की ये लगातार बढ़ रही है। यदि यह पूर्ण होती तो मर चुकी होती। केवल अपूर्णता का ही विकास दुनिया में संभव है।
7 – अनुशासन क्या है। अनुशासन का अर्थ है की आपके भीतर एक व्यवस्था का निर्माण करना है। तुम तो केवल एक अव्यवस्था एक केऑस हो।
8 – प्रेम एक एकालाप नहीं है यह तो एक संवाद है। यह सामंजस्यपूर्ण संवाद है।
9 – तुम अपने जीवन में तभी अर्थ को पा सकते हो जब तुम इसे निर्मित करोगे। मानव जीवन एक कविता है। जिसे लिखा जाना चाहिए। यह गाया जाने वाला गीत भी है तो यह किया जाने वाला नृत्य भी है।
10 – ओशो के विचार – प्रेम एक लक्ष्य है। प्रेम एक जीवन यात्रा भी है।
11 – जीवन में कोई विचार नहीं कोई बात नहीं कोई विकल्प भी नहीं इसी लिए शांत रहो, और केवल अपने आप से ही जुड़े रहो।
12 – मानव जीवन का असली प्रश्न ये नहीं की मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व है या नहीं। बल्कि प्रश्न तो ये है की तुम आज जीवित हो या नहीं।
13 – यदि तुम्हें कुछ हानिकारक या कुछ नकारात्मक करना हो तभी तुम्हे ताकत की आवश्यकता होगी वरना तो प्रेम ही पर्याप्त है और करुणा ही पर्याप्त है।
14 – मनुष्य जो सोचता है वो ही बन जाता है यह मनुष्य की स्वंम की जिम्मेदारी है।
15 – ओशो के विचार – जब भी कभी व्यक्ति को दर लगे। तो तलाशना शुरू करो। और तलाशते हुए तुमको पीछे छिपी हुई मृत्यु ही मिलेगी। सभी भय मृत्यु के ही हैं। मृत्यु ही एकमात्र भय का स्रोत है।
16 – अपने बारे में तुम्हारी पूरी सोच ही उधर ली हुई है उन लोगो से जिन्हे खुद ये नहीं पता की वो कौन है।
17 – तुम एक भीड़, एक राष्ट्र, एक धर्म, एवं किसी एक जाति का ही नहीं पूरे बल्कि पूरे अस्तित्व का हिस्सा बनो। अपने को छोटी चीज़ों के लिए क्यों सीमित करते हो जबकि सब कुछ संपूर्ण रूप से उपलब्ध है।
18 – तुम दर्द से बचने केलिए सुख से बचते हो। और मृत्यु से बचने केलिए तुम जीवन से बचते हो।
19 – जितनी ज़्यादा ग़लतियां हो सकें उतनी ज़्यादा ग़लतियां तुम करो। बस इस बात का जरूर ध्यान रखना की फिर से वही ग़लती को मत दोहराना। और फिर देखना तुम प्रगति के मार्ग पर चल रहे होगे।
20 – ओशो के विचार – सितारों को देखने के लिए एक निश्चित अँधेरे की आवश्यकता होती है।
21 – तुम तलाशो मत, पूछो भी मत, ढूंढो भी मत, खटखटाओ भी मत, मांगो मत। तुम शांत हो जाओ। तुम शांत हो जाओगे तो वो आ जाएगा। तुम शांत हो जाओगे तो उसे यहीं पाओगे। तुम शांत हो जाओगे तो अपने को उसके साथ झूलते हुए ही पाओगे।
22 – धर्म गुरुओ के द्वारा इसकी निंदा करने के कारण ही सेक्स और भी आधीक आकर्षक होता चला गया।
23 – तुम जब भीं चीजों की इच्छा करो तो थोड़ा सोच लो। हर संभावना है कि इच्छा पूरी हो जाए। और फिर तुम बाद में कष्ट भुगतो।
24 – जो व्यक्ति शत प्रतिशत समझदार है। समझो की वो मकर चूका हैं।
25 – ओशो के विचार – कैद के सिवाय और कुछ भी दुःख नहीं है।
26 – प्रेमियों ने कभी भी एक दूसरे के लिए आत्मसमर्पण नहीं किया। जबकि प्रेमियों ने केवल प्रेम के लिए ही आत्मसमर्पण किया है।
27 – जो ‘जानता’ है वो जानता है किसी को कुछ बताने की कोई ज़रूरत नहीं। जानना ही काफ़ी है।
28 – विश्वास और धारणा के बीच बहुत अंतर है। विश्वास निजी है और धारणा सामाजिक है।
29 – आपके तनाव का अर्थ है कि आप कुछ और होना चाहते हैं। जो कि आप नहीं हैं।
30 – ओशो के विचार – भीड़ केवल भ्रम को ही पैदा करती है।
31 – प्रेम एक आध्यात्मिक घटना है। वासना भौतिक घटना है। अहंकार मनोवैज्ञानिक घटना है।
32 – केवल ईश्वर ही अकेला है और कोई नहीं।
33 – अपने मन के अंदर जाओ। और अपने मन का विश्लेषण करो। कहीं न कहीं पर तुमने खुद को ही धोखा दिया है।
34 – तुम खुद दुनिया में रहो। परन्तु तुम्हारे अंदर दुनिया नहीं रहनी चाहिए।
35 – ओशो के विचार – जीवन का कोई अर्थ नहीं है। बल्कि ये तो जीवन के अर्थ को बनाने का अवसर है।
36 – ज्ञान हमेशा व्यक्ति को मुक्त करता है।
37 – अपने अंदर ज्ञान को शामिल करो। और आगे बढ़ो।
38 – ओशो के विचार – जहा पर मनुष्य का डर ख़त्म होता है वही से मानव का जीवन शुरू होता है।
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मृत्यु एक ऐसा खतरनाक शब्द है। बहुत से लोगो के तो पसीने छूट जाते हैं इस शब्द को सुनकर। बहुत लोग तो मरना ही नहीं चाहते है। परन्तु एक शख्स ऐसा था जो मृत्यु का उत्सव को मनाने की बात करता था। उसकी मौत के बाद उसके चहिते लोगो ने उत्सव भी मनाया। झूमे,नाचे,गाए। लेकिन इस व्यक्ति की मौत आज भी विवादों से घिरी हुई है। भारत के इस बेहद विवादित व्यक्ति का नाम है ‘ओशो’ विवादित अपने विचारों की वजह से है। कुछ लोग बुरी तरह से खार खाए हुए रहते हैं। ओशो को कुछ लोग पसंद भी करते हैं। कुछ लोग इनके बारे चुपके-चुपके पढ़ते है और सुनते तो हैं। परन्तु पब्लिक में ज्यादा बोल पाते है। इनका नाम लेने में भी सकुचाते हैं। कुछ कट्टर भक्त भी हैं। अब उनके भक्तो में ही ओशो की वसीयत और संपत्ति को लेकर मार-काट मची हुई है। एक ग्रुप का ऐसा कहना है की उनके ही कुछ भक्तो ने वसीयत और संपत्ति के लालच में ओशो की हत्या करवा दी।
अब ओशो को क्या कहा जाए। आध्यात्मिक गुरु कहे, दार्शनिक कहे, पाखंडी या आलोचक कहे, ये सब कुछ ओशो को कहा जाता है। ये कठिन है थोड़ा कोई एक शब्द चुनना क्योंकि वो कई स्थानों पर तो सीधे और कई स्थानों पर बड़े ही उल्टे नज़र आते हैं। खुद को किसी भी फ्रेम से परे बताते थे। संगठित धर्म की ये बखिया उधेड़ते थे। प्रेम,ध्यान,विज्ञान की बातें भी करते थे। बुद्ध महावीर उनके पसंदीदा थे। आस्तिकता और नास्तिकता दोनों पर भी ये बोलते थे। मुल्ला नसीरुद्दीन की हास्य पंक्तियाँ भी सुनाते थे। ये एक सुई से लेकर जहाज तक, सब पर बोल देते थे। ज्यादातर ऑडियो, वीडियो एवं प्रिंट में रिकॉर्ड भी है। दुनियाभर में कई प्रकार की भाषाओं में देखा और पढ़ा भी जाता है। ये गरीबी के विरोधी भी थे। ये अपनी रॉयल लाइफ जीते थे। शिष्यों ने 93 रॉल्स रॉयस कारें भी गिफ्ट की थीं। ये ऐसा कहते थे की ”उत्सव हमारी जाति, और आनंद हमारा गोत्र.” ‘ज़ोरबा द बुद्धा’ की कल्पना भी करते थे। यानी एक ऐसा नया व्यक्ति, जो ज़ोरबा की तरह अपने जीवन का आनंद उठाए, उससे भागे नहीं एवं बुद्ध की तरह अंदर से शांत चित्त और मन भी हो। ये ज्यादा विवादों में रहे है तो अपने सेक्स सम्बन्धी विचारों के कारण। ‘संभोग से समाधि की ओर’ उनकी किताब बड़ी ही विवादित रही। कई भक्त तो उन्हें ‘सेक्स गुरु’ भी मानते हैं। मृत्यु के बाद सेक्स दूसरा ऐसा शब्द है जिसे सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
ओशो का मूल नाम रजनीश चन्द्र मोहन जैन था। बाद में ये आचार्य रजनीश हो गए। उनके कट्टर भक्त ज्यादा भावुक हो गए। तो उन्हें फिर भगवान श्री रजनीश कहने लगे। बाद में भगवान नाम से हट गया और रजनीश भी हट गया। फिर इनका नया नाम रखा जो था ‘ओशो’ साल 1931 में मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा नामक गांव में इनका जन्म हुआ था। ये फिलॉसफी के प्रोफ़ेसर भी रहे चुके है। प्रोफेसरी को छोड़कर 1960 के दशक में उन्होंने पब्लिक के बीच में बोलना प्रारम्भ किया। वे तर्क देने में और बोलने में बहुत तेज थे। अपने विचारों की वजह से ये प्रसिद्द भी हो गए। 1969 में उन्हें द्वितीय वर्ल्ड हिन्दू कॉन्फ्रेंस में भी बुलाया गया। यहां पर उन्होंने ऐसा कहा कि कोई भी ऐसा धर्म जो मानव जीवन को व्यर्थ बताता हो वो धर्म धर्म ही नहीं है। ऐसा कहने से पुरी के शंकराचार्य नाराज हो गए। उन्होंने ओशो का भाषण को रुकवाने की भी कोशिश की थी। इसके बाद ओशो मुंबई आ गए। पूना के कोरेगांव पार्क में आश्रम था ओशो ने कई प्रकार की ध्यान विधियो को विकसित किया। इनके विचार फैले तो पश्चिम वाले काफी लोग भी उनके पीछे लाइन लगा लिए थे। साल 1981 तक यहां सालाना 30,000 भक्त आते थे। जगह छोटी महसूस होने लगी। विदेशियों के आने एवं आश्रम को लेकर साल 1977-78 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से छोटी मोटी बहस भी हो गई थी। शिष्यों ने फिर इन्हे अमेरिका बुला लिया था। ओरेगॉन की लगभग 64, 229 एकड़ बंजर ज़मीन पर बहुत बड़ा कम्यून बनाया गया था। इसे रजनीशपुरम नाम दिया गया। भीड़ वहां भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। वहां की सरकार उन पर भड़क गयी थी। वहां के गवर्नर को आश्रम पर नज़र रखने आदेश दिया गया। इसे एक ‘एलियन कल्ट’ के द्वारा उनके देश में आक्रमण बताया गया। ऐसा कहा गया था।ओशो उनके कल्चर एवं धर्म को नष्ट कर रहे हैं।
इसके बाद में रजनीशपुरम में अवैध गतिविधियों के होने का आरोप भी लगा। ओशो ने कहा उन्हें इस बात की कोई भी जानकारी नहीं है। उनकी सेक्रेटरी शीला को बायोटेरर अटैक का दोषी भी पाया गया एवं 20 वर्ष के लिए उसे जेल में भी डाल दिया गया। बाद में प्रवासी अधिनियम के उल्लंघन करने और कई अन्य मामलों में ओशो को गिरफ्तार किया गया था। फिर उन्हें देश निकाला भी दे दिया गया था।
अमेरिका के अतिरिक्त कुल 21 देशों ने उनके प्रवेश करने पर प्रतिबंध भी लगा रखा था।
ओशो की मृत्यु को लेकर बहुत सा असमंजस बना हुआ हैं और कई थ्योरीज भी हैं.
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चाणक्य का शिष्य कौन है
चाणक्य का शिष्य कौन है – चाणक्य का जन्म 375 ईसा पूर्व में हुआ था। वे महान शिक्षक,अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री, शाही सलाहकार, राजनीतिज्ञ थे एवं मार्गदर्शक भी थे। चाणक्य जाती से ब्राह्मण थे। चाणक्य को कौटिल्य एवं विष्णुगुप्त के नाम से भी जानते है। चाणक्य ने अर्थशास्त्र पुस्तक लिखी थी जो की बहुत ही प्रसिद्ध है।
चाणक्य का शिष्य कौन है – चाणक्य छोटे बालक थे तो उनके मुँह में एक कुत्ते के जैसा दांत था। ऐसा माना जाता था कि जिस किसी भी इंसान के कुत्ते के जैसा दांत होता है वह राजा जरूर बन जाता है।
चाणक्य का शिष्य कौन है –चाणक्य की माता इस बात से अधिक चिंतित हो गई थी और रोने भी लगी कि यदि उसका पुत्र जब राजा बन जाएगा तो वह उसे छोड़ कर चला जाएगा। तो फिर चाणक्य ने अपना वह दांत ही तोड़ दिया और ऐसा कहा कि वह कभी भी राजा नहीं बनेगा।
चाणक्य का शिष्य कौन है – चाणक्य के उस टूटे हुए दांत ने उनकी सूरत को बहुत ही भद्दा बना दिया था। उनके पैर भी कुछ-कुछ कुटिल से दिखाई देते थे। इसी वजह से उनकी पूरी वेशभूषा ही भद्दी बन गई थी।
चाणक्य का शिष्य कौन है
चाणक्य का शिष्य कौन है – चाणक्य के 2 (दो) शिष्य थे एक चन्द्रगुप्त मौर्य और दूसरा पब्बता था। परन्तु अति प्रिय शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ही था।
चाणक्य ने मगध का सम्राट केवल चन्द्रगुप्त मौर्य को ही बनाया था।
धनानंद राजा के पब्बता नाम का एक पुत्र था। जो वहा का सम्राट बनना चाहता था लेकि अपने पिता धनानंद के साथ वो रहना ही नहीं चाहता था। चाणक्य ने इसी बात का लाभ उठाया और उसे अपने साथ मिला लिया था।
अब चाणक्य के पास में दो शिष्य हो गए थे एक चंद्रगुप्त और दूसरा पब्बता। चाणक्य को अपने दोनों शिष्यों में से किसी एक को ही उन्हें चुनना था। जो धनानंद के पश्च्यात सम्राट बन सके। चाणक्य ने अपने दोनों शिष्यों को अपने गले में डालने के लिए एक-एक धागा दिया।
जब चंद्रगुप्त अपनी निद्रा में था तो चाणक्य ने पब्बता को अपने पास में बुलाया और कहा कि इस धागे को चंद्रगुप्त को बिना नींद से जगाए। उसके गले से बाहर निकाल कर लाओ। इस कार्य में वह सफलता प्राप्त नहीं कर सका।
बिलकुल वही प्रक्रिया चाणक्य ने चंद्रगुप्त के साथ भी करी थी। जब पब्बता जब अपनी निद्रा में था। तो उन्होंने चंद्रगुप्त को अपने पास बुलाया और उस भी धागे को पब्बता के गले से बिना उसे नींद से जगाए निकालने के लिए आदेश दिया। चंद्रगुप्त ने फिर पब्बता के सिर को ही काट कर उस धागे को पब्बता के गले से निकाल लिया।
इसके पश्च्यात चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राज्य के राजकीय कार्यों हेतु तैयार किया। फिर उसे तक्षशिला विश्व विद्यालय में पढ़ने के लिए वहा दाखिला करवाया। जब चंद्रगुप्त उम्र में बड़ा हो गया तो चाणक्य ने एक सेना को तैयार करने के लिए उन छुपे हुए सोने के सिक्कों को निकाल लिया।
चाणक्य धनानंद के राज्य को छोड़ कर जंगलों में चले गए। वहां उन्होंने किसी एक तकनीक का उपयोग करके करीब 800 मिलियन से भी ज्यादा सोने के सिक्के का निर्माण किया था।
यह तकनीक चाणक्य को 1 सिक्के को 8 सिक्कों में बदल दिया करती थी। इन सिक्कों का निर्माण करने के बाद उस सोक्को को कही छुपा दिया। इसके बाद वे एक ऐसे योग्य व्यक्ति की तलाश में जुट गए जो धनानंद के बाद राज्य का सम्राट बन सके।
फिर उन्होंने एक दिन देखा कि एक चंद्रगुप्त नामक लड़का बहुत ही अच्छे सलीके से अपने साथी मित्रो को आदेश दे रहा है। जबकि चंद्रगुप्त एक शाही परिवार में जन्मा हुए लड़का था। उसके पिता की युद्ध में हत्या कर दी गई थी। तब देवताओं ने उसकी माँ को कहा कि चंद्रगुप्त को त्याग दो।
चंद्रगुप्त को एक शिकारी ने अपने पास ही रख लिया था और उसे काम करने के बदले में वे उसे धन दिया करता था। चंद्रगुप्त वही पर अन्य शिकारियों के लड़कों के साथ मिलकर खेल खेला करता था।
चाणक्य चंद्रगुप्त के आदेशात्मक कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उसे अपने साथ मिलाने का विचार किया । चाणक्य ने उसी शिकारी को एक हजार सोने के सिक्के दे दिए और वे चंद्रगुप्त को साथ लेकर वहा से चले गए।
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चाणक्य के गुरु कौन थे – चाणक्य एक ऐसे व्यक्ति थे जो अपनी बौद्धिक शक्ति से सामने वाले व्यक्ति को हरा दिया करते थे। उन्होंने अपने ही शिष्य चंद्रगुप्त के साथ मिलकर योजना बनाई और अखंड भारत का निर्माण भी किया। आज के वर्तमान समय में किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति या बौद्धिक शक्ति वाले व्यक्ति के लिए चाणक्य और कौटिल्य जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया भी जाता है।
चाणक्य का जन्म 375 ईसा पूर्व में तक्षशिला नामक स्थान पर हुआ था। वे एक महान और विद्वान शिक्षक, अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री, शाही सलाहकार, राजनीतिज्ञ और सम्माज के लोगो के लिए मार्गदर्शक भी थे। चाणक्य ब्राह्मण थे, चाणक्य को कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी लोग पुकारा करते थे। उन्होंने अर्थशास्त्र में किताब भी लिखी थी जो आज बहुत ही प्रसिद्ध है।
चाणक्य के गुरु कौन थे – चाणक्य जब छोटे बालक के रूप में थे तो उनके एक दाँत कुत्ते का दांत जैसा था। ऐसा माना जाता था कि जिस किसी भी इंसान के कुत्ते के जैसा दांत होता है वह व्यक्ति राजा बन जाता है।
चाणक्य की माता को इस बात चिंता हो गई थी और वो रोने लगी कि यदि उसका बेटा राजा बन गया तो वह उसे छोड़ कर कही चला जाएगा। तो चाणक्य ने अपना वह दांत ही तोड़ दिया और कहा कि वह जीवन में कभी भी राजा नहीं बनेगा।
चाणक्य के गुरु कौन थे – चाणक्य के टूटे हुए दांत ने चाणक्य की शक्ल को पूरी तरह से बदल दिया और इस कारण से चाणक्य की शकल भद्दी हो गई। उनके पैर पर भी कुछ कुटिल दिखाई पड़ते थे। इसके कारण से भी उनकी पूरी वेशभूषा भी भद्दी ही नज़र ही आती थी।
मगध साम्राज्य का सम्राट धनानंद था। उस राजा ने एक दिन ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देने हेतु अपने महल में बुलाया था। उसी कार्यक्रम में चाणक्य भी आये हुए थे।
धनानंद राजा ने चाणक्य की वेशभूषा भद्दी होने के कारण से उन्हें महल से निकाल दिया। अचानक हुए मुठभेड़ में चाणक्य का जनेऊ टूट कर गिर गया था। उन्होंने धनानंद राजा को श्राप दिया था कि वह उसके राज्य को नष्ट कर देगा ।
इसके बाद धनानंद राजा ने चाणक्य को अपनी कैद में कर लिया। परंतु, चाणक्य धनानंद राजा के पुत्र पब्बता की सहायता लेकर वहा से बच कर निकल गया।
चाणक्य के गुरु कौन थे – चाणक्य के बारे में इतिहास कारो ने बताया है की उनके गुरु उनके ही पिता ऋषि चणक ही थे। चाणक्य ने उन्ही से जीवन का ज्ञान प्राप्त किया था। परन्तु काम उम्र में ही वे चाणक्य को छोड़ कर दुनिया से चले गए थे। उन पर राजद्रोह का झूठा आरोप लगा कर उनकी हत्या कर दी थी। उस समय चाणक्य की उम्र महज 14 वर्ष की थी
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चाणक्य किसकी पूजा करते थे – जैसा की आप और हम सभी इस बात को जानते है की चाणक्य बहुत ही बुद्धिमानीं और ज्ञानी व्यक्ति थे। एवं उनमे वाक् चातुर्यता भी थी। वे अपनी हाजिर जवाब की काला से सभी को मोह लिया करते थे।
चाणक्य किसकी पूजा करते थे –चाणक्य का जीवन बहुत ही संघर्ष भरा रहा था। काम उम्र में ही उनके पिता पर राजद्रोह का झूठा आरोप लगा कर मगध नगर के चौराहे पर लटका दिया था। उनके बचपन में ही पिता का साया उठ जाने से उन्हें कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा था।
चाणक्य किसकी पूजा करते थे –चाणक्य ने मानव जीवन के हर क्षेत्र को लेकर मानव जाती का मार्गदर्शन भी किया। फिर चाहे वो युद्ध क्षेत्र हो या नीतियों की बात हो। सामाजिक जीवन,स्वस्थ या फिर आध्त्यात्मिक की बात हो। जीवन के हर क्षेत्र में सरल और उच्च कोटि का जीवन जीने के अनेको सूत्र हमे दिए है।
चाणक्य किसकी पूजा करते थे –चाणक्य के अनुसार हर व्यक्ति ईश्वर को अलग अलग रूप में देखता है। तो आइये आज हम जानेंगे की मानव किस किस रूप में ईश्वर को मानता है और पूजता है।
चाणक्य किसकी पूजा करते थे –चाणक्य अपने कर्म के साथ-साथ ईश्वर में भी भक्ति रखते थे उनका ईश्वर को पूजने का भी एक अलग ही अंदाज़ था। वे सर्वाधिक अग्नि को पूजते थे। एवं वे भिन्न-भिन्न प्रकार से ईश्वर को मानते थे। और मानव जीवन के उद्धार के लिए भक्तिमय मार्गदर्शन भी किया है।
तो आइये जानते है उनके ईश्वर की भक्ति करने का तरीका और अंदाज।
अग्नि को पूजते है
चाणक्य की मान्यता के अनुसार ब्राह्मण,क्षत्रिय,और वैश्य समाज के लिए अग्नि ही साक्षात देव स्वरुप मानी जाती है। किसी भी विधि से इस समाज के लोग अग्नि को ही परमात्मा के रूप में पूजते है।
हृदय में बसते हैं भगवान
चाणक्य ऐसा मानते है की ऋषि और मुनि जब ध्यान करते है तो उस अवस्था के द्वारा ईश्वर का सानिध्य वे प्राप्त कर सकते है इन सभी के मन में और ह्रदय में ही इनके प्रभु निवास करते है।
मूरत में दीखते है भगवान
चाणक्य ऐसा कहते है की केवल मूर्खो को ही मूर्ति में भगवान दिखाई देते है। वे अपने ईश्वर को मूरत के आगे कुछ नहीं मान सकते और इससे आगे कुछ देख भी नहीं पाते है
हर चीज में भगवान दिखाई देते है
चाणक्य ऐसा मानते है की प्रत्येक चीज को सामान रूप से देखने वाले हर चीज और स्थान को भगवान् के रूप में देखते है। ऐसे लोगो के लिए हर जगह भगवान् का निवास होता है।
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चाणक्य हिंदू थे या जैन
चाणक्य हिंदू थे या जैन – चाणक्य को ही कौटिल्य, विष्णु गुप्त और वात्सायन भी कहते हैं। चाणक्य का जीवन बहुत ही कठिन रहा था और रहस्यों से भरा हुआ था। दोस्तों जानते हैं आज हम जानेंगे उनके जीवन को संक्षिप्त कहानी के रूप में ।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – मगध के सीमावर्ती नगर में ब्राह्मण आचार्य चणक रहते थे। चणक मगथ के राजा के शासन से असंतुष्ण थे। चणक किसी भी तरह से महामात्य के पद पर रहकर राज्य को विदेशी आक्रांताओं से मुक्त करवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने मित्र अमात्य शकटार से विचार विमर्श कर के धनानंद को उखाड़ के फेंकने की योजना बनाई।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – परन्तु गुप्तचर के द्वारा महामात्य राक्षस को और कात्यायन को इस षड्यंत्र का पता चल गया था। उसने मगथ के सम्राट घनानंद को इस षड्यंत्र के बारे में जानकारी दी। तो फिर चणक को बंदी बना कर कैद कर लिया। और पुरे राज्यभर में खबर फैल गई कि राजद्रोह का करने पर एक ब्राह्मण की हत्या की जाएगी। चणक के पुत्र कौटिल्य को जब यह बात पता चली तो वह चिंतित हो गए और दुखी हो गये। चणक का कटा हुआ सिर राज्य की राजधानी के चौराहे पर टांग दिया। अपने पिता के कटे हुए सिर को देखकर कौटिल्य (चाणक्य) के नेत्र से आंसू टपक वादे थे। उस समय चाणक्य की उम्र केवल 14 वर्ष की ही थी। रात के समय अंधेरे में उन्होंने बांस पर टंगे हुए अपने पिता के सिर को नीचे उतारा और एक कपड़े में लपेट लिया और वहा से चले गए।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – अकेले चाणक्य ने ही अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। उसी समय कौटिल्य ने गंगा का जल अपने हाथ में लेकर शपथ ली- ‘हे गंगे माँ, जब तक में अपने पिता के हत्यारे धनानंद से अपने पिता की हत्या करने का प्रतिशोध नहीं लूंगा तब तक कोई भी पकाई हुई कोई को वस्तु नहीं खाऊंगा। और जब तक महामात्य के रक्त से अपने बालो को नहीं रंग लूं, तब तक यह शिखा खुली हुए ही रखूंगा। पिता का तर्पण तभी सम्पूर्ण होगा, जब में हत्यारे धनानंद का रक्त अपने पिता की राख पर नहीं चढ़ा देता। हे यमराज! आप धनानंद का नाम अपने लेखे से मिटा दो। क्योकि उसकी मृत्यु का लेख केवल मैं ही लिखूंगा।’
चाणक्य हिंदू थे या जैन – इस घटना के बाद से कौटिल्य ने अपने नाम को परिवर्तित कर विष्णु गुप्त धर लिया। विद्वान पंडित राधामोहन ने विष्णु गुप्त (चाणक्य) को सम्बल दिया। पंडित राधामोहन ने विष्णु गुप्त की प्रतिभा को भांपा और फिर उन्हें तक्षशिला विश्व विद्यालय में उनका दाखिला भी करवाया। फिर विष्णु गुप्त की (चाणक्य ) जीवन की एक नई शुरुआत हुई। तक्षशिला विश्व विद्यालय में चाणक्य ने न केवल छात्रों को कुलपति को और बड़े बड़े विद्वानों को व शिक्षको को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। ऐसा ही नहीं बल्की उसने पड़ोसी राज्य के नरेश (राजा) पोरस से भी अपना परिचय बढ़ा लिया।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – सिकंदर के आक्रमण के समय में चाणक्य ने पोरस का साथ दिया था । सिकंदर की हार के बाद और तक्षशिला में सिकंदर के प्रवेश के बाद विष्णुगुप्त अपने गृह प्रदेश यानि मगध नगर को चले गए थे। फिर यहां से शुरुआत हुई उनके नए जीवन की। उन्होंने विष्णुगुप्त के नाम से ही शकटार से मुलाकात की थी। शकटार उनके पिता के मित्र थे जो अब वृद्ध हो गए थे। चाणक्य ने देखा की क्या हालत कर दी मेरे राज्य की घनानंद ने। उधर से विदेशियों का आक्रमण लगातार बढ़ता ही जा रहा है और उधर ये दुष्ट राजा नृत्य,मदिरा पान और हिंसा करने में चूर है।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – एक समय विष्णु गुप्त भरी सभा में दरबार में पहुंच गए। चाणक्य ने फिर दरबार में क्रोध में आकर ही अपना परिचय तक्षशिला विश्व विद्यालय के आचार्य के रूप में वहा दिया और राज्य हो रहे विदेशी आक्रमण और अत्याचार के प्रति अपनी चिंता को व्यक्त कीया। उन्होंने यूनानी आक्रमण की बात भी सभा में बताई और अपनी शंका जाहिर की कि यूनानी हमारे राज्य पर आक्रमण करने वाला है। इस दौरान विष्णु गुप्त ने मगध के राजा धनानंद को खूब खरी-खोटी सुनाई एवं फटकार भी लगाईं और कहा कि मेरे राज्य को आक्रमण और अत्याचार से बचा लो महाराज। परन्तु भरी सभा मे चाणक्य का अपमान हुआ, एवं उपहास (मजाक) उड़ाया गया।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – बाद में चाणक्य फिर से शकटार से मुलाक़ात करते हैं। तब शकटार बताते हैं कि राज्य में कई ऐसे पुरुष है जो संतुस्ट नहीं है। और समाज भी असंतुस्ट है। उनमें से एक चंद्रगुप्त भी है। चंद्रगुप्त मुरा का बेटा है। किसी अनन्य संदेह होने के कारण धनानंद ने मुरा को घने जंगल में निवास करने के लिए मजबूर कर दिया था। अगले दिन शकटार एवं चाणक्य ज्योतिष का रूप धारण कर के जंगल में पहुंच जाते है। जहां मुरा निवास करती थी उस जंगल में बहुत ही भोले-भाले परन्तु लड़ाकू प्रवृत्ति के आदिवासी लोग और वनवासी जाति के लोग भी निवास करते थे। जंगल में चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राजा का कोई खेल खेलते हुए देखा। तभी से चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपने जीवन का मूल लक्ष्य बना लिया था। और फिर तभी से शुरू हुआ चाणक्य का नया जीवन।
चाणक्य हिंदू थे या जैन – चाणक्य ने चंद्रगुप्त को शिक्षा और दीक्षा देने के साथ-साथ ही भील,आदिवासी एवं वनवासियों को एकजुट कर अपनी एक सेना तैयार की और धननंद के साम्राज्य को उखाड़ फेंक दिया। और फिर चंद्रगुप्त को मगथ का नया सम्राट बनाया गया। उसके पश्च्यात चंद्रगुप्त के साथ ही उनके पुत्र बिंदुसार एवं पौत्र सम्राट अशोक भी दरबार में महामंत्री के पद पर रहकर चाणक्य का मार्गदर्शन किया।
चाणक्य हिंदू थे या जैन
चाणक्य हिंदू थे या जैन – चाणक्य की मौत एक रहस्यमयी मौत है। हमारे इतिहासकारों में इस बात को लेकर काफी मतभेद भी है। परन्तु कुछ शोधकर्ता उनकी मौत को लेकर अलग-अलग तीन प्रकार की थ्योरी प्रस्तुत की हैं। तो आओ दोस्तों जानते हैं कि आखिर चाणक्य की मौत हुई कैसे थी।
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बाहुवीर्यबलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।
रूप-यौवन-माधुर्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।
चाणक्य नीति स्त्री – चाणक्य कहते हैं। कि स्त्रियों के लिए सबसे बड़ी ताकत होती है उनकी मधुर वाणी। इसके अतिरिक्त चाणक्य ने महिलाओं के सौंदर्य और रंग रूप को भी उनकी शक्तियों का एक हिस्सा बताया है। परन्तु मधुर वाणी की तुलना में शारीरिक सुंदरता को कुछ हद तक कम ही आंका जाता है। जो की उचित भी है। मधुर वाणी के दम पर स्त्रियां हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर ही लेती हैं। मधुर भाषी स्त्री का हर जगह पर मान-सम्मान भी होता है। स्त्री का ये ही गुण उसके कुल का मान-सम्मान को भी बढ़ाता है। और इस शक्ति/गुण के आधार पर घर की कई पीढियों को अच्छे संस्कार व गुण भी मिलते हैं।
चाणक्य की निति के अनुसार ब्राह्मण का ज्ञान ही उसकी सबसे बड़ी ताकत होती है।और पूंजी होती है। ब्राह्मण अपने ज्ञान के दम पर ही वह समाज में पद और मान-सम्मान एवं प्रतिष्ठा हासिल करता है। चाणक्य कहते की ज्ञान न सिर्फ ब्राह्मण का बल्कि हर व्यक्ति की शक्ति की होती है। और जीवन का आधार भी होता है। व्यक्ति के जीवन में विपरित हालातों में केवल ज्ञान ही एक ऐसी शक्ति है। जो व्यक्ति को संकटों से उबारने में मदद भी करती है।
किसी भी राजा का लंबे समय तक सत्ता में रहना व राज्य में राज करना उसके स्वंय के बाहुबल पर ही निर्भर करता है। राजा के पास चाहे कितने भी मंत्री-संत्री हो। ये सब कुछ होने के बावजूद अगर राजा दुर्बल हो तो वह ज्यादा दिन तक राजगद्दी पर नहीं रह सकता है। राजा यदि स्वंय शक्तिशाली होगा तो ही वह अपने शासन को भी ठीक तरीके से उसका सञ्चालन नहीं कर सकता है। लीडर के तौर पर देखा जाए तो जब तक लीडर मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत नहीं होगा तो न ही प्रबंधन ठीक होगा और न ही वह संस्थान को सुचारु रूप से चला पायेगा।
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चाणक्य नीति में बहुत सी बातो का उल्लेख कलिया गया है। तो दोस्तों आज हम जानेंगे चाणक्य नीति के अनुसार स्त्री-पुरुष के सम्बन्धो लेकर भी बहुत सी बातें बताई गई है। इस बातो में शादी को लेकर उन्होंने लोगो को सतर्क किया है।
आचार्य चाणक्य अपने चाणक्य नीति शास्त्र में कई ऐसी बातें और नीतियां बताई गई हैं जो आज के समाज के लिए एक दर्पण है और उपयोगी भी है। चाणक्य ने अपनी नीतिय में बड़ों, बुजुर्गों, बच्चों सभी के लिए कुछ ना कुछ सीख ही दी है। जिसको व्यक्ति अपने जीवन में उतर कर आदमी अपने जीवन को संवार सकता है एवं बदल सकता है। आज हम आपको चाणक्य की वे बातें बताते हैं, जिनका पालन कर के आप भी अपने घर को सुख-समृद्धि से भर सकते हैं। एवं घर में शांति का वातावरण बनाये रख सकते है।
चाणक्य की नीति भले ही कठोर ही क्यों न हो लेकिन उनमें जीवन की सच्चाईयां कही न कही छिपी हुई होती ही हैं। चाणक्य नीति के अनुसार विवाह को लेकर पुरुष को ही नहीं बल्कि स्त्री पक्ष को भी सर्तक रहना चाहिए और काफी विचार विमर्श करने के बाद ही कोई अंतिम फैसला लेना चाहिए।
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सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी का जन्म 3 सितम्बर सन्न 1957 को कर्नाटक राज्य के मैसूर नामक शहर में एक तेलुगु भाषी परिवार में हुआ था। वासुदेव जी के पिता एक चिकित्सक थे। जग्गी वासुदेव को प्रकृति से बेहद प्रेम था। कभी कभी वे कुछ दिनों के लिये जंगल में ही रहते थे। वहा पर वे पेड़ की ऊँची-ऊँची डाल पर बैठकर ताजा हवाओं का आनंद लेते और अनायास ही गहरे ध्यान करने लग जाते थे। जब वे घर लौटते तो उनकी झोली सांपों से भरी हुई होती थी। सांपो को पकड़ने में उन्हें महारत हासिल थी। 11 वर्ष की आयु में जग्गी वासुदेव ने योग का निरंतर अभ्यास करना आरम्भ कर दिया था। इनके योग शिक्षक श्री राघवेन्द्र राव, थे जिन्हें मल्लाडिहल्लि स्वामी के नाम से भी जाना जाता था। मैसूर विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रजी भाषा में स्नातक की डिग्री भी प्राप्त की।
सद्गुरु जग्गी वासुदेव के द्वारा स्थापित की गई ईशा फाउंडेशन एक लाभ रहित मानव सेवा के लिए स्थापित एक संस्थान है।जो लोगों की शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक कुशलता हेतु पूर्ण रूप से समर्पित है। इस ईशा संस्था को दो लाख पचास हजार से भी अधिक स्वयंसेवियों के द्वारा संचालित किया जाता है।
इसका मुख्यालय ईशा योग केंद्र कोयंबटूर में स्तिथ है। ग्रीन हैंड्स परियोजना अंग्रेजी ईशा फाउंडेशन की पर्यावरण से संबंधीत बहुमूल्य प्रस्ताव है।
पूरे तमिलनाडु राज्य में लगभग 16 करोड़ वृक्ष लगाने की परियोजना की घोषणा भी की है। अब तक के समय में ग्रीन हैंड्स परियोजना के अंतर्गत तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में लगभग 1800 से भी अधिक समुदायों में, 20 लाख से अधिक व्यक्तियों के द्वारा 82 लाख पौधे को लगाने का आयोजन भी किया गया है।
इस संगठन के द्वारा 17 अक्टूबर 2006 को तमिलनाडु राज्य के 27 जिलों में एक साथ 8.52 लाख पौधे लगा कर गिनीज विश्व रिकॉर्ड भी बनाया गया था।
पर्यावरण की सुरक्षा के लिए किए गए इसके महत्वपूर्ण एवं नेक कार्यों के लिए इसे वर्ष 2008 में इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार भी दिया गया है । वर्ष 2017 में आध्यत्म के लिए आपको पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया है अभी वे रैली फ़ॉर रिवर अब नदियों के संरक्षण हेतु भी अभियान चला जा रहा है।
ईशा योग केंद्र, ईशा फाउन्डेशन के संरक्षण में ही स्थापित है। यह योग केंद्र वेलिंगिरि पर्वतों की तराई में 150 एकड़ की हरी भरी भूमि पर स्थित है। घने वनों से घिरा ईशा योग केंद्र नीलगिरि जीवमंडल का एक हिस्सा माना जाता है। जहाँ भरपूर वन्य जीवन भी मौजूद है। यह आंतरिक विकास के लिए बनाया गया है। यह शक्तिशाली स्थान योग के चार मुख्य मार्ग – ज्ञान, कर्म, क्रिया और भक्ति को लोगों तक पहुंचाने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है। इसके परिसर में ध्यानलिंग योग मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा भी की गई है।
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