आइये दोस्तों आज हम बात करेंगे राजस्थान के जयपुर जिले के चाकसू में स्तिथ शीतला माता एवं शीतला माता मेला के बारे में और जानेंगे इस मंदिर के इतिहास के बारे में और इस माता की मान्यता के बारे में।
शीतला माता मेला – शीतला माता का लक्खी मेला 2 दिन तक लगता है यहाँ पर दूर-दूर से भक्त दर्शन करने के लिए और माता को भोग लगाने के लिए यहाँ पर आते है। यह मेला होली के पर्व के सात दिन बाद चैत्र की सप्तमी को शुरू होता है और अगले दिन अष्टमी तक चलता है। सप्तमी के दिन यहाँ हर घर में रंदा पुआ बनाया जाता है जिसे राजस्थानी भाषा में बास्योड़ा भी कहते है। फिर अष्टमी के दिन माता के ठन्डे पकवानो का भोग लगाया जाता है। माता के इस लख्खी मेले में हजारो की संख्या में लोग दर्शन के लिए आते है।
शीतला माता मेला – माता के ठन्डे पकवानो का भोग लगाने के बाद उसे प्रसाद के रूप में स्वयं सेवन करते है। ऐसा माना जाता है की डंडे भोजन को खाने से माता प्रसन्न होती है और अपने भक्तो को आशीर्वाद देती है।
शीतला माता की खंडित मूर्ति की पूजा की जाती है। हिन्दू धर्म में जितने भी देवी देवता है उनमे से केवल यही एकमात्र देवी है जिसकी खंडित मूर्ति की पूजा की जाती है।
शीतला माता मेला – इस मंदिर में लगे हुए पुराने शिलालेखों के अनुसार राजस्थान के जयपुर जिले के चाकसू कस्बे में स्तिथ शील डूंगरी पर बना माता का मंदिर बहुत पुराना है। ऐसा बताया जाता है कि इस शीतला माता के मंदिर का निर्माण जयपुर जिले के महाराजा माधो सिंह ने ही करवाया था। इस मंदिर में मौजूद शिलालेखों के अनुसार मंदिर लगभग 500 वर्ष पुराना माना जाता है। इन शिलालेख में अंकित प्रमाणों के अनुसार तत्कालीन जयपुर के महाराजा माधोसिंह के पुत्र गंगासिंह एवं गोपाल सिंह को चेचक नामक रोग हो गया था। फिर इस मंदिर में माता ही पूजा-अर्चना की गई थी और माता को भोग लगाया गया तब वे चेचक रोग से मुक्त हुए थे।
शीतला माता मेला – माता के इस चमत्कार के बाद राजा माधोसिंह ने चाकसू की पड़ाड़ी पर माता के मंदिर एवं बरामदे का निर्माण कराया भी था। इस मंदिर में माता शीतला की मूर्ति स्थापित है। यहां की खास बात ये भी है कि इस मेले के समय पर यहाँ पर कई समाज के लोगों की यहां पर पंचायतें भी लगती हैं। और यहां पर आपसी मतभेद को भुलाया जाता है और सब मिलजुल कर रहते है और कोई अनन्य विवाद भी अगर होता तो उसे भी सुलझाए जाता हैं।
शीतला माता मेला – शीतला माता के मंदिर का निर्माण राजपरिवार की ओर से करवाया था। इसीलिए इस मंदिर के निर्माण के बाद उनका यहां गहरा लगाव रहता है। तो इसी मान्यता से अभी भी शीतलाष्टमी पर माता को सर्वप्रथम जयपुर राजघराने की ओर से ही भोग लगाया जाता है। इसके बाद यहाँ पर आए हुए श्रद्धालु अपने घरों से लाए गए बासी (ठन्डे) पकवानों का भोग लगाते है। फिर माता के दरबार में जल का छिड़काव भी किया जाता है।
हिन्दू धर्म में इस माता का बहुत महत्व बताया गया है , सम्पूर्ण भारत में इस दिन शांति का माहौल रहता है अवं भाईचारे के साथ इस पर्व को मनाया जाता है , इस दिन छोटे बचो को माता का आशार्वाद जरूर प्रदान करवाना चाहिए क्यों की माता के आशीर्वाद से बचे सदैव स्वस्थ रहते है
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सुईया मेला – आइये दोस्तों आज हम लोग बात करेंगे बाड़मेर जिले के सुईया मेले के बारे में। वैसे तो हमारे देश की पवित्र नदियों के त्रिवेणी संगम पर और अन्य नदियों के तट पर पवित्र स्नान के लिये कुंभ मेले का आयोजन किया जाता हैं। परन्तु रेगिस्तान के सूखे बियाबान में स्थित चौहटन में मरूकुम्भ के नाम से प्रसिद्द सूईंया पोषण का मेला भारत देश में अपनी एक अलग ही पहचान रखता है। पौराणिक मान्यताओं की अगर हम माने तो चौहटन के डूंगरपुरी मठ के संरक्षण में लगने वाला ये सुईया मेला कुम्भ मेलों से भी उच्च मान्यता के लिए एवं अपनी पवित्रता के लिये ये सुईया मेला प्रसिद्ध है। पाण्डवों की तपोभूमि और डूंगरपूरी के महाराज की कर्मस्थली चौहटन में 12 वर्ष के बहुत लंबे अंतराल और इंतजार करने के पश्च्यात इस बार मरूकुम्भ का सूईंया पोषण के स्नान का ये पवित्र मेला सोमवती अमावस्या को भरेगा।
इसमें लगभग 10 लाख से भी अधिक श्रद्धालुओं के इस मेले में आने का अंदाजा लगाया जा रहा है। ये सभी श्रद्धालु पवित्र स्नान करने के लिये यहाँ पर आने की संभावना है।
सुईया मेला – इस सूईंया मेले में पवित्र स्नान की पौराणिक मान्यता है। यहां पर लाखों श्रद्धालु तेज सर्दी के दिनी में यहाँ पर पवित्र स्नान करने के लिये आते है। सोमवती अमावश्या के दिन यहां पर सूईंया महादेव मंदिर के झरने के जल से, कपालेश्वर महादेव मंदिर के झरने के जल से, धर्मराज की बेरी के झरने के जल से, एवं इंद्रभान तालाब के जल से, इन पांच स्थानों के पवित्र एवं मिश्रित जल से श्रद्धालु स्नान करते है। इस साल स्नान करने का मुहूर्त 18 दिसंबर को प्रातः 6 बजे से लेकर दोपहर 12 बजे तक ही रहेगा। इस सुईया मेले का आगाज 13 दिसंबर को ही अभिजीत मुहूर्त में ध्वजारोहण के साथ किया जाएगा। ध्वजारोहण करने के बाद दूर-दूर से साधु-संतों का यहाँ पर आगमन की शुरुआत हो जायेगी।
सुईया मेला – बाड़मेर के इस सूईंया मेले में आने वाले भक्त अपनी भुजा पर मठ एवं मेले की छाप भी लगवाते है। ऐसी मान्यता है कि देशभर के जितने भी तीर्थ स्थान है। एवं मेलों में लगाई जाने वाली छाप इस चौहटन मठ की लगि हुई छाप के स्तर से नीचे ही लगती है। यदि किसी श्रद्धालु ने पहले ही किसी भी स्थान पर मेले की छाप लगा रखी है। तो यहां पर पूर्व में लगी हुई छाप के ऊपरी हिस्से में ही छाप लगती है। यदि इस मेले की की छाप को लगा कोई श्रद्धालु भी किसी अन्य स्थान पर पहुंचता है। तो वहां पर इसके निचले हिस्से में छाप को लगाया जाता है। सूईंया मेले के दौरान छाप लगवाने के लिये मठ में निश्चित स्थान बना रखा है। वही पर छाप को लगाया जाता है। किसी अन्य स्थान पर छाप नहीं लगाईं जाती है।
सुईया मेला – बाड़मेर के डूंगरपुरी मठ के महंत श्री जगदीशपुरी जी महाराज के अनुसार सूईंया का मेला 4,7,12 एवं 17 वर्ष के अंतराल में ज्योतिषीय योग के अनुसार ही लगता है। विक्रम संवत 2000 से 2099 के मध्य में 16 बार मेले के आयोजन होने का योग बनता है। अंग्रेजी वर्ष के अनुसार 1943,1946,1949, 1956,1970, 1974, 1977, 1990, 1997, 2005 में सूईंया के मेले का आयोजन हुआ था। दिसंबर 2017 में होने वाले सुईया के मेले के आयोजन के बाद वर्ष 2024, 2027, 2032 और 2041 में ही इस सूईंया के मेले का आयोजन होगा।
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धनोप माता का मेला – आइये दोस्तों आज हम बात करेंगे धनोप माता के मेले के बारे में। यह धनोप माता का मेला राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में धनोप माता जी का भव्य मंदिर संगरिया से केवल मात्र 3 किलोमीटर दूरी पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर है। यह मंदिर देवी शीतला माता को समर्पित धनोप माता का मंदिर राजस्थान के प्रमुख मंदिर में से एक मंदिर माना जाता है। यहाँ पर प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में भक्तगण यहाँ पर शीतला माता के दर्शन करने के लिए आते है। इस मंदिर की जो वास्तुकला है वो बहुत ही आकर्षक है। जो यहाँ पर आने वाले सभी भक्तो को अपनी ओर आकर्षित करती है।
यदि आप भी भीलबाड़ा जिले के धनोप माता मंदिर के दर्शन करना चाहते एवं इसके पर्यटक स्थलो की भी जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो आप मेरे इस लेख को पूरा अवश्य पढ़े इस लेख में हम आपको धनोप माता मंदिर का पुराना इतिहास दर्शन का समय एवं यात्रा से जुड़ी हुई अन्य आवश्यक जानकारी के बारे में भी आपको बताएँगे।
धनोप माता का मेला – भीलवाड़ा का ये धनोप माता का मंदिर एक उंचे टीले पर स्तिथ है जो की बेहद ही प्राचीन संरचना का प्रमाण भी है। इस मंदिर के प्रांगण में विक्रम संवत 912 भादवा सदि 2 का शिलालेख भी यहाँ पर पाया जाता है। जिससे हमे इस बात का पता चलता है। कि यह भव्य मंदिर लगभग 1100 वर्ष पुराना है। माता का यह मंदिर धनोप नामक गाँव में विद्धमान है। इसी कारण इस मंदिर को धनोप माता का मंदिर भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन समय में धनोप एक समृद्ध नगर माना जाता था। जिसमें कई प्रकार के सुंदर मंदिर,बावड़ियाँ, एवं कुण्ड का निर्माण किया गया था। इस नगर के दोनों ओर मानसी नदी एवं खारी नदी बहती थी। जो आज भी यहां पर है। प्राचीन समय में यह नगर राजा धुंध की नगरी मानी जाती थी जिसे लोग “ताम्बवती” नगरी के नाम से भी पुकारते थे।
में बता दू कि वहा के नरेश (राजा) के नाम पर ही इस पवित्र स्थान का नाम धनोप पड़ा था। धनोपमाता वहा के राजा की कुल देवी मानी जाती थी। इस मंदिर के सभामण्डप का निर्माण पृथ्वी राज चौहान (तृतीय) के शासनकाल के दौरान का है। धनोप माता के मंदिर में माँ अन्नपूर्णा, माँ चामुण्डा एवं माँ कालिकामाता की लुभावनी मूर्ति भी स्थापित है। जिनका मुख पूर्व दिशा की ओर रहता है। इनके अतिरिक्त यहां पर भैरु बाबा का थान भी मौजूदम है। और भगवान् शिव और पार्वती, कार्तिकेय,गणेश जी व चौसठ योगनियों की मूर्तियाँ भी यहाँ पर स्तिथ है। वैसे तो माता के दर्शन करने के लिए रोजाना तीर्थ यात्री यहाँ पर आते हैं। परन्तु नवरात्री के दिनों में यहां धनोप माता का भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है। जिसमे लाखो की संख्या में भक्त माता के दर्शन करने के लिए यहाँ पर आटे है।
धनोप माता का मेला – धनोप माता जी के मंदिर में दर्शन करने का एक निश्चित समय रखा जाता है। ताकि भक्त माता के दर्शन सही समय पर करके अपने अपने घर को सही समय पर वापस चले जाएँ। धनोप माता जी के मंदिर में दर्शन करने का सही समय प्रातः काल 6 बजे से लेकर रात के 9 बजे तक भक्तो के दर्शनों के लिए खुला रहता है।
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जानिये सिंहस्थ मेला, कुम्भ और कुम्भ की कथा
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रामदेवरा मेला – आइए दोस्तों आज हम बात करेंगे राजस्थान के लोक देवता बाबा रामदेव के मेले के बारे में। यह मेला कब और कहा भरता है एवं इस मेले का इतिहास क्या है। आज हम जानेंगे इन सभी बातो के बारे में। भादवा का मेला राजस्थान के लोक देवता बाबा रामदेव जी के मंदिर में प्रत्येक वर्ष आयोजित होता है। इस मेले में देश के कोने-कोने से लाखो की संख्या में यहाँ पर श्रद्धालु आते हैं। बाबा रामदेव की आस्था में भादवा का मेला बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। क्योंकि बाबा रामदेव जी को हिंदू धर्म के लोग ही नहीं मुस्लिम धर्म के लोग भी इन्हे मानते हैं। और उनकी इबादत भी करते हैं।
रामदेवरा मेला – राजस्थान के लोक देवता बाबा रामदेव जी हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म की एकता का प्रतीक भी माना जाता हैं। हिंदू धर्म को मानने वाले लोग बाबा रामदेव जी महाराज के नाम से पुकारते हैं। जबकी मुस्लिम धर्म को मानने वाले लोग इन्हे रामसापीर के नाम से पुकारते हैं। राजस्थान में मुख्य रूप से भादवा का महीना अत्यंत ही महत्व रखता है। क्योंकि इस महीने के शुरूआती दिनों में ही बाबा रामदेव जी के मेले का आयोजन किया जाता है। और ये मेला पूरे महीने ही आयोजित किया जाता है।
रामदेवरा मेला – वर्तमान समय के दौर में राजस्थान के अलग अलग स्थानों में बने हुए मंदिरों पर अलग अलग तारीखो को इस मेले का आयोजन किया जाता है। इनके भक्तो में में रामदेव जी के प्रति अत्यंत और अद्भुत श्रद्धा का भाव है और आस्था भी देखने को मिल जाती है। पूरे 1 महीने तक रामदेव जी के मुख्य मंदिर में और रामदेव जी की समाधि स्थल राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामदेवरा नामक गांव मे भी इस मेले का आयोजन किया जाता है।
रामदेवरा मेला – राजस्थान राज्य के सुप्रसिद्ध लोक देवता रामदेव जी को राजस्थान के जैसे ही गुजरात के लोग भी इन्हे मानते है और पूजते है। गुजरात के लोग रामदेव जी के दर्शन करने हेतु हर वर्ष वे रामदेवरा आते हैं। आमतौर पर हर वर्ष श्रावण के महीने से ही लोग रामदेवरा के भादवा मेले के लिए पद यात्रा का शुभारम्भ कर देते हैं।
रामदेवरा मेला – आपको बता दें कि रामदेव जी की समाधि वाले स्थान रामदेवरा पर आयोजित होने वाले इस भादवा के मेले में पद यात्रा करके इस मेले में सम्मिलित होने की रिवाज पिछले कई वर्षों से लगातार चली आ रही है। लोगों की ऐसी मान्यताओं के आधार पर जो भी व्यक्ति पद यात्रा करते हुए बाबा रामदेव जी की समाधि स्थल पर भादवा के महीने में यहाँ पर आता है। उसकी सभी प्रकार की मनोकामनाएं बाबा पूरी करते हैं। और खुशियो से उनका जीवन भर देते है।
रामदेवरा मेला – भादवा का ये मेला राजस्थान राज्य के जैसलमेर में रामदेवरा नामक एक गांव में रामदेव जी के समाधि वाले स्थान पर और उनके मुख्य मंदिर में भाद्रपद सुदी के बीज की शुरुआत की जाती है। जिसे वहा की स्थानीय भाषा में “बाबा का मेला” एवं “भादवा का मेला” भी कहते हैं। प्रत्येक वर्ष इस मेले का आयोजन बड़े ही धूम धाम से बड़े पैमाने पर किया जाता है। यह मेला श्रद्धालुओं के उत्साह एवं धूम-धाम के साथ पूरे 1 महीने तक लगातार आयोजित होने के बाद संपन्न किया जाता है। इस वर्ष भादवा का मेला रविवार के दिन यानि 17 सितम्बर 2023 से भादवा सुदी बीज के दिन है। तो इसी दिन दे इस मेले का आगाज हो जायेगा।
रामदेवरा मेला – श्रावण महीने की शुरुआत से ही गुजरात एवं राजस्थान राज्य के कोने-कोने से श्रद्धालु पद यात्रा करते हुए पश्चिम राजस्थान की ओर चल पड़ते हैं। क्योंकि पश्चिम राजस्थान मे ही पोकरण के समीप रामदेवरा गांव है जहां पर राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता कहलाये जाने वाले बाबा रामदेव जी का मुख्य एवं प्रसिद्ध मंदिर है।
रामदेवरा मेला – यही पर ही रामदेव जी महाराज ने जीवित समाधि ले ली थी। इसी कारण रामदेवरा में बाबा रामदेव जी के मेले का आयोजन किया जाता है। रामदेवरा को यहाँ की स्थानीय भाषा में ‘रुणिचा’ कह कर के भी पुकारते हैं। इस वर्ष रामदेवरा में बाबा रामदेव जी का मेला 17 सितम्बर 2023 को यानि रविवार के दिन से ही भादवा का मेला का आयोजन किया जायेगा। बाबा रामदेव जी के इस मेले के आयोजन में मन्दिर प्रशासन एवं स्थानीय लोगों के द्वारा भी विशेष योगदान दिया जाता है। मंदिर प्रशासन के द्वारा इस मेले में आने वाले सभी श्रद्धालुओं को किसी भी प्रकार की असुविधा ना हो। इसके लिए यहाँ पर कई प्रकार की सुविधाएँ भी की जाती है। ताकि यहाँ आने वाले सभी श्रद्धालु आनंद के साथ इस मेले का लाभ ले सकें।
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अजमेर का उर्स – राजस्थान राज्य की धार्मिक नगरी अजमेर में स्थित विश्व की प्रसिद्ध गरीब नवाज हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में इस बार 811वां उर्स लगने का भी आगाज हो गया है। इस्लामी माह रजब के चांद के दिखने पर ही उर्स की विधिवत रूप से शुरुआत होने का ऐलान हुआ है। इस इस्लामी मौके पर नौबतखाने में शादियाने,नगाड़े एवं झांझ आदि बजाए गए।
अजमेर का उर्स – इस इस्लामी मौके पर बड़े पीर की पहाड़ी से तोपची फौजिया के द्वारा पांच तोपों की सलामी भी दी गई। ऐसा माना जाता है कि यहां पर साल में चार बार नक्कारे एवं नौबत को बजाया जाता हैं। उर्स के अतिरिक्त रबी-उल-अव्वल का भी चांद के दिखने पर,रमजान मुबारक का चांद दिखने पर एवं ईद का चांद यहा दिखाई देने पर ही शादियाने एवं नौबत बजाए जाते हैं।
अजमेर का उर्स – राजस्थान के अजमेर की दरगाह शरीफ में शादियाने की बजाने के साथ ही उर्स की मुबारकबाद देने का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। यहां पर लोग एक-दूसरे के गले मिलकर उर्स की मुबारकबाद देते है। सांप्रदायिक सौहार्द एवं विश्व की शांति का संदेश सभी देने वाला यह उर्स मिसाल है हमारी कौमी एकता का। यहां पर देशभर से हजारों लाखो की संख्या में जायरीन ख्वाजा की बारगाह में फूल चढ़ाने आते हैं। और चादर चढाने भी आते है। उर्स के शुरू होते ही जायरीन अपने सिर पर फूलों से भरी टोकरी एवं अपने हाथों में चादर को फैलाए जत्थे के साथ दरगाह में पहुंचते हैं। अकीदतमंद यहां की मजार पर चादर एवं अकीदत के फूल को पेश कर के अपने लिए दुआ भी करते है।
अजमेर का उर्स – हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के महफिल खाने में रात्रि के 11 बजे के बाद प्रत्येक वर्ष लगने वाले उर्स की प्रथम महफिल हुई। ये लगभग 800 वर्ष पुरानी परंपरा है। इस परंपरा के अनुसार देर रात को मजार शरीफ पर दरगाह दीवान जैनुअल आबेदीन ने प्रथम गुस्ल की रस्म को अदा की। फिर इस महफिल की भव्यता का अंदाजा आप इस बात से आसानी से लगा सकते है कि इस महफिल में पुरे देश भर की विभिन्न दरगाहो के सज्जादा नशीन,जायरीन-ए-ख्वाजा एवं खादिम बैठे हुए थे। इस महफिल के अंदर विश्व विख्यात कव्वालों ने फारसी भाषा एवं ब्रजभाषा में अपनी कलाम भी पेश की। आखिरी कलाम होने के पश्च्यात फातिहा भी पढ़ी गई। आखिर में कव्वालों ने कड़का भी पढ़ा। और इसके साथ ये पहली महफिल का समापन भी हो गया।
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सालासर मेला
आइये दोस्तों आज हम आपको बताएंगे राजस्थान के चूरू जिले में स्तिथ श्री सालासर धाम के बारे में। यहाँ पर भगवान् हनुमान जी का प्रसिद्द भव्य मंदिर है।
सालासर मेला – यहाँ पर प्रत्येक मंगलवार को और शनिवार को भक्तो की भीड़ रहती है। ख़ास तौर पर पूर्णिमा के दिन अधिक भीड़ देहने को मिलती है। इस मंदिर की बहुत सी प्राचीन मान्यताएं है। ऐसा भी माना जाता है की यदि किसी भी व्यक्ति के ऊपर टोना-टोटका किया हुआ हो या कोई अन्य प्रकार का वशीकरण किया हुआ हो तो उसका असर यहाँ नहीं होता है। ऐसा माना जाता है की यहाँ पर साक्षात बालाजी की कृपा बानी हुई है। यहाँ पर अलौकिक सकारात्मकता का वातावरण बनाहुआ रहता है।
हनुमान जयंती 2023
इस साल 2023 में सालासर में बालाजी का लक्खी मेला हनुमान जयंती को लगेगा।
इस साल 2023 में हनुमान जयंती 6 अप्रैल 2023 को मनाई जायेगी।
पूर्णिमा तिथि की शुरुआत 05 अप्रैल 2023 को सुबह 09:19 बजे होगी। एवं पूर्णिमा की समाप्ति 06 अप्रैल 2023 को सुबह 10:04 बजे होगी।
सालासर मेला – हनुमान जयंती का पर्व हिन्दू सनातन धर्म में भगवान श्री हनमुान जी के जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाता है। ये हनुमान जयंती का त्योहार हिन्दुओ की पौराणिक कथा की मान्यता के अनुसार चैत्र माह में आने वाली पूर्णिमा के दिन भगवान श्री राम की सेवा करने के उद्देश्य से भगवान शिव के ग्यारहवें रुद्र ने माँ अंजना के घर में हनुमान जी के रूप में जन्म लिया था। इसी कारण इस त्योहार को वानरों के देव माने जाने वाले भगवान श्री हनुमान जी के जन्म उत्सव के रूप में मनाते है। यह पर्व हिन्दूओं का एक विशेष पर्व है। एवं इस को त्योहार सम्पूर्ण भारत देश में मनाया जाता है। और जो भारतीय लोग विदेश में रहते है वो भी इस पर्व को विदेश में धूम धाम से मनाते है। हनमुान जी को भगवान श्री वरूण के रूप में भी जाना जाता है।
सालासर मेला – हनुमान जी, भगववान श्री राम के परम भक्त माने जाते है। और उनकी भक्ति, निष्ठा एवं सेवा का पूर्ण वर्णन ‘‘रामायण’’ में विस्तार से किया गया है। हनुमान जी को बल एवं ऊर्जा का प्रतीक भी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यदि किसी भी व्यक्ति को भूत-प्रेत या किसी भी प्रकार के टोन-टोटके से मुक्ति चाहिए है। तो वह व्यक्ति हनुामन जी की पूजा-अर्चना करता है।
सालासर मेला – हमारी पौराणिक कथाओं में ऐसा बताया गया है। कि यदि व्यक्ति को शनि को शांत करना हो या शनि को प्रसन्न करना है। तो व्यक्ति को केवल हनुमान जी को ही प्रसन्न करना चाहिए और उनकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए। इसलिए ऐसा बताया गया है। कि जब भगवान् हनुमान जी ने न्याय के देवता शनिदेव के घमंड को चूर-चूर किया था। तब सूर्यपुत्र शनिदेव ने हनुमानजी को वचन दे दिया था। कि उनकी भक्ति करने वाले भक्तो की राशि में आकर भी वे कभी भी उन्हें पीड़ा नहीं होने देंगे और कभी भी नकारात्मक भाव नहीं प्रकट करेंगे । हनुमान जयंती वाले दिन सभी भक्त हनुमान जी की मूर्ति पर तेल,एवं टीका और सिंदूर चढ़ाते है। बहुत से भक्त इस दिन व्रत भी रखते हैं। ऐसी मान्यता है की हनुमान जयंती वाले दिन जो कोई भी भक्त हनुमानजी की पूजा-अर्चना करता है और हनुमान जी के दर्शन करता है। उसके सभी प्रकार के दुख-दर्द अपने आप ही दूर हो जाते हैं।और वह तनाव से भी मुक्त हो जाता है। भक्त गण प्रातः काल जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत हो कर ही भगवान हनुमान जी की पूजा व दर्शन के लिए मंदिरों में जाते है। और हनुमान जी की पूजा-अर्चना करते है और हनुमान जी का असीम आशीर्वाद को प्राप्त करते है।
सालासर मेला – हमारे ज्योतिष की सटीक गणना को यदि हम माने तो हनुमान जी का जन्म 58 हजार 112 वर्ष पूर्व त्रेता युग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन हुआ था। चित्रा नक्षत्र एवं मेष लग्न के योग में प्रातः 6.03 बजे भारत में झारखण्ड राज्य के गुमला जिले में आंजन नामक एक छोटे से पहाड़ी गाँव की एक गुफा में हुआ ।
सालासर मेला – हनुमान चालीसा के पाठ के भी अपने चमत्कार है। प्रत्येक दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर व्यक्ति को हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करना चाहिए। हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करने से मन शांत रहता है। जीवन में सकारात्मकता बानी रहती है। और बोली में भी यश रहता है। इस पाठ को करने से हनुमान जी प्रसन्न होते है। और उस व्यक्ति के सभी दुःख संकट मिट जाते है और वह आनंदमय जीवन को जीता है और मरणोपरांत मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
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हरियाली अमावस्या का मेला
आइये दोस्तों आज हम जानेंगे हरियाली अमावश्या के मेले के बारे में। और इस मेले की क्या-क्या खूबिया है ये सब जानेंगे इस लेख के माध्यम से।
हरियाली अमावस्या का मेला राजस्थान के उदयपुर में लगता है। इस मेले की ख़ास बात ये है की इस मेले में केवल महिलाएं ही हिस्सा लेती है। पुरुषो का प्रवेश इस मेले में वर्जित है। यहाँ पर यह परंपरा लगभग 100 वर्षो से लगातार चली आरही है।
हरियाली अमावस्या का मेला – वैसे तो मेले कई अलग अलग स्थानों पर लगते हैं परन्तु उदयपुर जिले में हरियाली अमावस्या का मेल विश्व के अनेको मेलों में से बेशुमार मेला माना जाता है। इस हरियाली अमावश्या मेले की खास बात यह भी है कि ये मेला दो दिवसीय होता है। इस मेले में दूसरे दिन केवल महिलाओं एवं कुंवारी लड़कियों के लिए ही होता है। सौ सालों से लगातार चली आ रही यह परम्परा आज भी नियमित रूप से निभाई जा रही है। परन्तु इस साल जिला प्रशासन ने इस मेले के आयोजन करवाने के लिए कड़ी सुरक्षा भी करेगी। यह हरियाली अमावश्या 28 और 29 जुलाई 2023 को आयोजित किया जायेगा।
हरियाली अमावस्या का मेला – हरियाली अमावस्या के दिन राजस्थान में अनेको स्थानों ओर इस मेले का आयोजन किया जाता हैं। परन्तु उदयपुर वाले मेले की अपनी एक अलग ही पहचान है। इस मेले का शुभारम्भ तात्कालिक महाराणा फतहसिंह के कार्यकाल के समय में 1898 में की गई थी। महाराणा फतहसिंह ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने दुनिया में पहली बार केवल महिलाओं को ही इस मेले का आनंद लेने का अधिकार दिया । इसके लिए वे फतहसागर झील जिसे पूर्व में देवाली तालाब भी कहा जाता था। उस पर एक पाल बनवाई एवं वहां पर महिलाओं का हरियाली अमावश्या के मेले का आयोजन किया। तभी से यह परंपरा आज तक लगातार चली आ रही है।
हरियाली अमावस्या का मेला – महाराणा फतह सिंह के नाम पर इस देवली तालाब के नाम को बदल कर फतहसागर रखा। जो की राजस्थान की प्रसिद्ध झीलों में शामिल है। जब पहली बार महाराणा फतहसिंह मेवाड़ की महारानी एवं अपनी धर्मपत्नी चावड़ी के संग देवाली तालाब पर भ्रमण करने गई थी तब महारानी ने फतह सिंह से महिलाओं के लिए भी एक मेले के आयोजन करने की मांग करि थी। अपनी पत्नी की इस बात को उन्होंने स्वीकार किया। उन्होंने महारानी की इस अपील को करने के बाद उन्होंने पूरे नगर में मुनादी भी कराव दी एवं दो दिवसीय इस मेले की शुरूआत भी कर दी इस मेले का दूसरा दिन केवल महिलाओं के लिए ही रखा जाए ऐसी घोषणा भी कर दी।
हरियाली अमावस्या का मेला – राजस्थान के मेवाड़ में महिलाओं को एक विशिष्ठ दर्जा मिला है। अठारवीं शताब्दी में वहा के तत्कालीन महाराणा संग्राम सिंह ने ही शाही महिलाओं एवं उनकी सखियों के लिए ही इस बाड़ी का निर्माण किया था। इस बाड़ी में उनकी पत्नी विवाह के समय अपनी 48 सखियों के साथ प्रत्येक दिन प्राकृतिक माहौल में भ्रमण करने केलिए इस बाड़ी में आती थीं। महाराणा संग्राम सिंह ने खुद इस सहेलियों की बाड़ी का आकार व डिजाइन को तैयार किया था। महाराणा संग्राम सिंह की रानी को बारिश की बूंदो की आवाज बहुत ज्यादा पसंद थी। इसीलिए इस बाड़ी में एक ऐसे फव्वारे का निर्माण करवाया जिसके लगातार चलते रहने से बारिश के होने का अहसास रानी को होता रहता था। इस बाड़ी के आकर्षण का केंद्र यहां पर लगे हुए फव्वारे हैं। जिन्हें संग्राम सिंह में इंग्लैण्ड से मारवाड़ मंगवाया गया था। वह फव्वारे गुरुत्वाकर्षण बल की पद्धति से बाड़ी में चलते थे। बीचों में लगी हुए छतरी से एक चादर की तरह पानी गिरता रहता है। ऐसा विशेष फव्वारा दुनिया में ओर कहीं नहीं पाया जाता है।
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आइये दोस्तों आज हम बात करेंगे राजस्थान राज्य के पुष्कर मेले के बारे में। और जानेंगे इस मेले की खूबियों के बारे में।
पुष्कर मेला – पुष्कर का नाम सुनते ही मन में दो चीजें ही सबसे पहले हमारे दिमाग में आती हैं। पहली ब्रह्मा जी का भव्य मंदिर एवं दूसरा यहां के मेला का आनंद। वैसे तो ऐसे मेले पूरे देश में कहीं ना कहीं पर आये दिन लगते ही रहते हैं। पशुओं के मेले भी आए दिन लगते ही रहते हैं। परन्तु पुष्कर में जो मेले का आयोजन होत है। उसकी तो बात ही कुछ अलग है। यहां पर ऊंटों का मेला भी लगता है। और यह मेला इतना मज़ेदार लागत है कि लोग दांतों तले उंगली भी दबा लेते हैं। इस मेले की शुरूआत कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन होती है। इस साल 2023 में ये मेला 20 नवंबर 2023 को शुरू होकर 28 नवंबर 2023 तक लगेगा । कई सालों से पुष्कर मेला निरंतर लगता आ रहा है एवं राजस्थान की सरकार भी इसके लिये अनुदान राशि भी देती है। इस मेले का आयोजन रेत के टीलों पर कई किलोमीटर की दूरी तक लगता है। यहाँ पर खाने पीने की चीजों से लेकर, झूले, नाच गाना ,और तमाशा भी यहां होता है।
पुष्कर मेला – हज़ारों की संख्या में विदेशी सैलानी भी पुष्कर के इस मेले में आते हैं। ज्यादातर विदेशी सैलानी राजस्थान में सिर्फ इस पुष्कर मेले को देखने केलिए ही आते हैं। यहाँ सबसे सुन्दर नज़ारा तो तब दिखाई देता है। जब मेले के स्थान के ऊपर से गर्म हवा वाले रंग बिरंगे गुब्बारे उड़ते रहते हैं। इन गुब्बारों में बैठकर इस मेले को ऊपर से देखने में ये मेला भव्य दिखता है।
पुष्कर मेला खासतौर पर ऊंटों एवं पशुओं का होता है। पूरे राजस्थान से लोग अपने-अपने ऊंटों को लेकर यह पर आते हैं। एवं उनकी प्रदर्शनी भी करते है। इस मेले में ऊंटों की दौड़ भी होती है। जीतने वाले ऊंट को अच्छा इनाम देकर भी सम्मानित किया जाता है। पारंपरिक परिधानों /वस्त्रो से ऊंटो को कुछ इस तरह से सजाया जाता हैं। कि उनसे हमारी नज़र नहीं हटती है । सबसे सुंदर दिखने वाले ऊंट एवं ऊंटनी को भी इनाम भी दिया जाता है। इस मेले में ए हुए सैलानियों को ऊंटों की सवारी भी करवाई जाती है। इतना ही नहीं इस मेले में ऊंटों का डांस एवं ऊंटों से वेटलिफ्टिंग भी बढ़िया तरोके से करवाई जाती है। यहाँ पर ऊंट अपने नए नए खेल भी दिखाते हैं। यहा नृत्य भी होता है। यहाँ पर राजस्थान के लोक गीत भी गाए जाते हैं। एवं रात के समय में अलाव (आग) जलाकर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं।
पुष्कर मेला – पुष्कर के इस भव्य मेले की शुरुआत कार्तिक पूर्णिमा से ही शुरू हो जाती है। एवं पुष्कर के सरोवर में नहाना भी तीर्थ करने के बराबर ही माना जाता है। इस पवित्र दिन लाखों की संख्या में भक्तगण इस सरोवर में स्नान करके ब्रह्मा जी के दर्शन करके उनका आशीर्वाद भी लेते है। फिर इस भव्य मेले में खरीदारी भी करते हैं। पुरे दिन और शाम को पारंपरिक रूप से नृत्य करते है। घूमर,गेर मांड एवं सपेरा का कार्यकर्म भी दिखाए जाते हैं। यह पर शाम के समय में आरती भी होती है। इस आरती को शाम के समय पर सुनने से मनुष्य के मन को बहुत शांति मिलती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है।
इस मेले में पहुंचने के साधन – Iss Mele Mein Pahunchane Ke Saadhan
पुष्कर मेला – इस मेले में पहुंचने के लिए सभी साधन उपलभ्ध है। यदि आप हवाई जहाज से आना चाहते है तो आप जयपुर एयरपोर्ट पर आइये और वहा से प्राइवेट टैक्सी से भी आ सकते है। यह जयपुर से लगभग 140 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है।
पुष्कर मेला – यदि आप ट्रैन से आते है तो अजमेर जंक्शन पर से टेक्सी करके आ सकते है। क्योकि अजमेर रेलवे जंक्शन से दूरी लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्तिथ है। यदि आप अपने निजी साधन से आते है तो आसकते है ,यहाँ पर कार पार्किंग की भी उचित व्यवस्था भी की जाती है। जिसका एक निश्चित शुल्क देना पड़ता है।
अन्य जानकरी :-
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सिंहस्थ मेला
आइये दोस्तों आज हम आपको बताएँगे कुंभ,अर्धकुंभ एवं सिंहस्थ के बारे में। आज हम इसके बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे।
सिंहस्थ मेला – कुंभ के मेले का आयोजन प्राचीन काल के समय से लगातार होता आ रहा है। परन्तु इस मेले का प्रथम लिखित में प्रमाण हमारे महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के द्वारा लिखित लेख में मिलता है। जिसमें छठी शताब्दी के सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में होने वाले कुम्भ का प्रसंगवश उल्लेख भी किया गया है। इस कुंभ के मेले का आयोजन चार स्थानों पर होता है। जो की इस प्रकार है।
1 – हरिद्वार
2 – प्रयाग
3 – नासिक
4 – उज्जैन
सिंहस्थ मेला – बताये गए इन चार स्थानों पर प्रत्येक तीन वर्ष में कुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। इस वजह से किसी एक स्थान पर प्रत्येक 12 वर्ष के बाद कुंभ के मेले का आयोजन किया है। जैसे की उज्जैन में कुंभ के मेले का अयोजन होता आ रहा है। तो उसके पश्च्यात फिर तीन वर्ष बाद हरिद्वार में इस मेले का आयोजन होता है। फिर उसके अगले तीन वर्ष बाद प्रयाग में इस मेले का आयोजन किया जाता है। और फिर उसके अगले तीन वर्ष बाद महाराष्ट्र के नासिक में कुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। उसके तीन वर्ष बाद फिर से उज्जैन में कुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। उज्जैन में लगने वाले कुंभ के मेले को ही सिंहस्थ कुम्भ कहा जाता है।
सिंहस्थ मेला
सिंहस्थ मेला – मिट्टी या किसी भी धातु के बने हुए कलश को ही कुंभ कहा जाता है। कुंभ का मूल अर्थ होता है घड़ा। इस मेले का सीधा संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में बहार निकले वाले अमृत कलश से ही जुड़ा हुआ है। देवता और असुर जिस समय अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे। तभी उसकी कुछ बूंदें धरती पर बहने वाली तीन नदियों में जा गिरी थीं। जहां पर जब ये बूंदें गिरी थी तभी से उसी स्थान पर तब से कुंभ के मेले का आयोजन होता आ रहा है। तो आइये जानते है आज उन तीन नदियों के नाम
1 – गंगा
2 – गोदावरी
3 – क्षिप्रा
सिंहस्थ मेला – अर्ध कुम्भ का शाब्दिक अर्थ होता है आधा। हरिद्वार एवं प्रयाग में दो कुंभ के मेलो के पर्वों के मध्य में छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ और अर्ध कुंभ के मेले के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण भी उपलब्ध है। कुंभ मेले के पर्व प्रत्येक 3 वर्ष के अंतराल में हरिद्वार से इसकी शुरुआत होती है। हरिद्वार के पश्च्यात कुंभ के मेले का पर्व प्रयाग नासिक एवं उज्जैन में इस कुम्भ के मेले का आयोजन किया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में आयोजित किये जानें वाले इस कुंभ का पर्व में एवं प्रयाग और महाराष्ट्र नासिक में आयोजित किये जाने वाले कुंभ के पर्व के मध्य 3 वर्षो का अंतर रहता है।
सिंहस्थ मेला – सिंहस्थ कुम्भ का संबंध सिंह राशि से रहता है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य के प्रवेश होजाने पर उज्जैन में इस कुंभ पर्व का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश करने पर भी कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी नदी के तट पर के नासिक में होता है। इसे हम्म महाकुंभ भी कहते हैं। क्योंकि यह संयोग 12 वर्ष के पश्च्यात आता है। इस कुंभ के मेले कारण ही लोगो में यह धारणा गई है की कुंभ के मेले का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष में ही होता है। परन्तु ये सत्य नहीं है।
सिंहस्थ मेला
1 – हरिद्वार में
हरिद्वार का के कुम्भ का सम्बन्ध सीधा मेष राशि से होता है। कुंभ राशि में बृहस्पति के प्रवेश करने पर और मेष राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर कुंभ के मेले का पर्व हरिद्वार में आयोजित होता है। हरिद्वार एवं प्रयाग में दो कुंभ के मेलो के पर्वों के बीच में छह वर्ष के मध्य में अर्धकुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है।
2 – प्रयाग में
प्रयाग में कुंभ का कुछ विशेष महत्व माना जाता है क्योंकि यह कुम्भ 12 वर्षो के पश्च्यात गंगा नदी, यमुना नदी, और सरस्वती नदी, के संगम पर ही आयोजित होता है। ज्योतिषशास्त्रियों के कथनाअनुसार जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। तब ही कुंभ के मेले का आयोजन प्रयाग में आयोजित किया जाता है।
अन्य मान्यता की माने तो मेष राशि के चक्र के अंदर बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन इस कुंभ का पर्व प्रयाग में ही आयोजित किया जाता है।
3 – नासिक में
प्रत्येक 12 वर्ष में केवल एक बार ही सिंहस्थ कुंभ मेला आयोजन नासिक और त्रयम्बकेश्वर में आयोजित किया जाता है। जब सिंह राशि में बृहस्पति का प्रवेश होता है। तब कुंभ मेले का पर्व गोदावरी नदी के तट पर महाराष्ट्र के नासिक में आयोजित किया जाता है। अमावस्या वाले दिन बृहस्पति सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर इस कुंभ के मेले का पर्व गोदावरी नदी तट पर आयोजित किया जाता है।
4 – उज्जैन में
जब सिंह राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है। तब यह पर्व उज्जैन में आयोजित किया जाता है। इसके अतिरिक्त कार्तिक ये अमावस्या के दिन सूर्य एवं चन्द्र के साथ होने पर और बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश कर जाने पर मोक्षदायक कुंभ मेले का उज्जैन में आयोजन किया जाता है।
सिंहस्थ मेला
सिंहस्थ मेला – अमृत के कलश पर अपना अधिकार को लेकर दानवों एवं देवता के मध्य में निरंतर बारह दिनों तक युद्ध चलता रहा था। जिसका एक एक दिन मनुष्यों के लिए एक एक वर्ष के समान बीत रहा था। अतएव कुंभ भी बारह प्रकार के होते हैं। उनमें से कम चार प्रकार के कुंभ पृथ्वी लोक पर होते हैं। एवं आठ प्रकार के कुंभ देवलोक में आयोजित होते हैं।
सिंहस्थ मेला – समुद्र मंथन की कथा में ऐसा बताया गया है कि कुंभ मेले का पर्व का सीधा सम्बन्ध सितारों से है। अमृत कलश को स्वर्गलोक तक लेकर जाने में जयंत को 12 दिनों का समय लगा था। देवों का एक दिन का समय मनुष्यों के लिए 1 वर्ष के सामान है। इसी वजह से सितारों के क्रम के अनुसार प्रत्येक 12वें वर्ष में कुंभ के मेले का पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित होता है।
सिंहस्थ मेला – युद्ध के समय सूर्य, चंद्र एवं शनि आदि देवताओं ने मिल कर कलश की रक्षा करि थी। उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र और सूर्यादिक ग्रह जब भी आते हैं। तब कुंभ का संयोग बनता है। एवं चारों पवित्र स्थानों पर प्रत्येक तीन वर्ष के बाद में क्रमानुसार कुंभ के मेले का आयोजन होता है।
सिंहस्थ मेला – इस का अर्थ है की अमृत की बूंदे छलकने के गिरने के दौरान जिन राशियों में सूर्य, चंद्रमा एवं बृहस्पति राशि की स्थिति के भी विशिष्ट प्राकर के योग के अवसर बनते हैं। वहां कुंभ के मेले का पर्व का इन राशियों में केवल गृहों के संयोग पर ही आयोजित किया जाता है। इस अमृत कलश की सुरक्षा कार्य में सूर्य, गुरु एवं चन्द्रमा के भी विशेष प्रयत्न रहे थे। इसीलिए इन्हीं गृहों की विशिष्ट स्थितियों में कुंभ के मेले का पर्व को मनाने की परम्परा है।
अमृत कलश मे से कुछ बूंदें निम्न स्थानों पर गिरी थी। उन जगहों के नाम ये है।
1 – गंगा नदी (प्रयाग, हरिद्वार)
2 – गोदावरी नदी (नासिक)
3 – क्षिप्रा नदी (उज्जैन)
इन सभी नदियों का संबंध गंगा नदी से है। गोदावरी को गोमती गंगा नदी के नाम से भी जानते हैं। क्षिप्रा नदी को उत्तरी गंगा नदी के नाम से पुकारते हैं। यहां पर गंगा गंगेश्वर की पूजा-अर्चना भी की जाती है।
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आइये दोस्तों आज हम जानेंगे सिद्धपीठ शाखाम्भरी देवी मेले के बारे में। और यहाँ की श्रद्धा एवं भक्ति के बारे में।
सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी मेला – सिद्धपीठ शाकंभरी देवी का मेला शारदीय नवरात्र में लगता है। इस मेले का शुभारंभ प्रदेश सरकार के औद्योगिक विकास और संसदीय कार्य राज्य मंत्री श्री जसवंत जी सैनी ने पुरे विधि विधान से पूजा-अर्चना करने के बाद नारियल को फोड़कर और फीते को काट कर किया है। इसके पश्च्यात उन्होंने माँ भगवती के चरण कमल में अपनी हाजिरी लगाई।
सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी मेला – श्री जसवंत सैनी ने बताया कि प्रदेश सरकार धार्मिक स्थलों बहुत विकास कर रही है। और सुरक्षा के सम्बन्धी भी कड़े कदम उठा रही है। इन सभी मुद्दों को लेकर सरकार अपनी कार्य योजना भी तैयार कर रही है। जिला पंचायत के अध्यक्ष श्री मांगेराम चौधरी ने बताया कि शाकंभरी देवी धार्मिक और ऐतिहासिक पवित्र स्थल है। जिसकी पहचान पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पुरे देशभर में है। और यह करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है। इस मेले में श्रद्धालुओं की सुख एवं सुविधाओं को लेकर जिला पंचायत के द्वारा की गई सभी व्यवस्थाओं में कोई भी कसर बाकी नहीं रहेगी। भाजपा के प्रदेश मंत्री श्री चंद्रमोहन, मेयर श्री संजीव वालिया, पूर्व विधायक श्री नरेश सैनी और महावीर राणा, बिजेंद्र चौधरी, ब्लॉक प्रमुख विश्वास चौधरी, नीरज चौहान,पंडित अमन कौशिक, जिला पंचायत के मुख्य अधिकारी श्री बाबूराम,रविंद्र चौधरी,हंसराज गौतम, मुकेश चौहान, जगमाल सिंह आदि गणमान्य लोग भी मौजूद रहे।
सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी मेला – शारदीय नवरात्र के पहले दिन श्रद्धालुओं ने माँ भगवती के पावन दर्शन कर के प्रसाद भी चढ़ाया एवं अपने परिवार में खुशहाली और सुख शांति के लिए माँ से मन्नतें की । हालांकि इस बार तो पिछले वर्षों की तरह प्रथम नवरात्र के दिन भीड़ उमड़ी नहीं । दूर-दूर से आए हुए श्रद्धालुओं ने बाबा भूरा देव के पावन दर्शनों के बाद वहां से पैदल चल कर ही सिद्धपीठ पहुंच कर माता रानी के दरबार में अपनी हाजिरी लगाई। शिवालिक की पहाड़ियां पुरे दिन भर माता के गगनभेदी जयकारों से लगातार गूंजती ही रही।
सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी मेला
सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी मेला – शारदीय नवरात्रो के दिनों में इस मंदिर में लाखो की संख्या में भक्त यहाँ दर्शन करने के लिए आते है। तो इस बढ़ती हुई भीड़ को मध्यनज़र रखते हुए यहाँ के प्रशासन ने भक्तो की सुरक्षा के लिए सभी प्रकार के इंतजाम किये हुए है। जैसे की पुलिस की टोली वहा पर रहती है सीसीटीवी कैमरे भी लगाए जाते है। जिससे की कोई भी अनहोनी घटने घाटे तो उस सीसीटीवी कैमरे में कैद हप जाये। अधिकतर अपराधी किस्म के लोग कैमरे के भय से ही कोई भी उत्पात नहीं मचाते है। और शुरक्षा के लिए सभी भक्तो की चेकिंग भी जाती है। ताकि कोई भी भक्त किसी भी प्रकार की घटना को अंजाम न दे सके। और भक्तो के स्वस्थ्य के लिए चिकित्सको की टीम भी वह पर मौजूद रहती है। यदि किसी की भी तबियत ख़राब हो तो उसे तुरंत इलाज मिल सके और कोई भी अनहोनी ना हो। यहाँ पर माता रानी के दर्शन के लिए लाखो की संख्या में लोग आते है। नवरात्रो के दिनों में यहाँ पर बहुत ही भीड़ रहती है। तो सुरक्षा के इंतजम भी उसी प्रकार से किये जाते है।
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त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – आइये दोस्तों आज हम बात करेंगे माँ त्रिपुरा सुनके मेले के बारे में। यह त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद में मां त्रिपुरा बाला सुंदरी का भव्य मंदिर स्थित है। यह मंदिर लगभग 5 हजार वर्ष से भी अधिक पुराना मंदिर है। यहां पर त्रिपुरा बाला देवी सती का गुप्त अंग यहाँ पर गिरा था। इसी वजह से इस मंदिर की मान्यता बहुत अधिक है। यहाँ प्रत्येक वर्ष में एक बार अप्रैल के महीने में इस मेले का आयोजनकिया जाता है। यहां पर माता के चरणों में अपने शीश झुकाने को दूर-दूर से लाखो की संख्या में भक्त यहाँ आते हैं। इस भव्य मंदिर का इतिहास महाभारत काल के समय से भी जुड़ा हुआ भी है।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – ऐसा माना जाता है की पांचो पांडवों ने अपना अज्ञातवास इसी स्थान पर पूर्ण किया था। यहां पर पांच फलों के द्वारा माता की मूर्ति को स्थापित किया गया था। एवं 11 मुखी शिवलिंग भी यहीं पर स्तिथ है। इसी स्थान पर युधिष्ठिर ने 11 मुखी शिवलिंग की घोर आराधना की थी एवं विजय होने का आशीर्वाद भी प्राप्त किया था। इस स्थान पर मां के अनेको रूप हमे देखने को मिलते हैं। यहां पर मां काली, माँ शाकंभरी,माँ अन्नपूर्णा, माँ पार्वती एवं माँ सरस्वती के रूप में भी अपने दर्शन दे रही है। भगवान् विष्णु के संग माँ लक्ष्मी के रूप में भी यहाँ पर विराजमान हैं।
किसी शुभ कार्य का प्रथम निमंत्रण मां को ही दिया जाता है
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – ऐसी मान्यता है। कि यहां पर किसी के घर में किसी भी प्रकार का शुभ कार्य यदि होता है। तो सर्व प्रथम मां को ही निमंत्रण देकर शुभ कार्य में पधारने का आग्रह किया जाता है। माता का आशीर्वाद भी लिया जाता है। इस मंदिर के मुख्य पुजारी श्री सत्येंद्र शर्मा ने ऐसा बताया है कि यह मंदिर लगभग 5 हजार वर्ष इ भी अधिक पुराना है। देवी सती का एक गुप्तांग यहां की पवित्र भूमि पर गिरा था। जिसकी वजह से इस जगह को मां भगवती के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने बताया है की अज्ञातवास के दौरान युधिष्ठिर ने भी माँ से विजय होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। उसके बाद वो कुरुक्षेत्र के लिए प्रस्थान किये थे।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – इस मंदिर के ऊपर की ओर एक छोटा सा शिलापट है जिसे आप कभी भी नहीं पढ़ नहीं पाएंगे। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी भी यहां पर दर्शन करने हेतु यहाँ आई थीं। यहां के शिलापट के बारे में जब उन्हें पता चला। तो उसके बाद यहां पर पुरातत्व विभाग की बहुत सी टीम भी आ चुकी हैं। और अन्य भी कई विभाग के लोग यहाँ पर पूर्व में आ चुके हैं। ये ही नहीं इस शिलापट को पढ़ने वाले व्यक्ति के लिए सर्कार के द्वारा इनाम भी रहा गया था। परंतु शिलापट पर लिखी हुए भाषा को आज तक कोई भी नहीं पढ़ सका है। पंडित श्री सत्येंद्र शर्मा ने ऐसा बताया है कि मां यहां पर एक पिंडी के रूप में स्थापित है।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – देहरादून से पधारे हुए एक श्रद्धालु मनीष पाल ने हमे बताया कि वो यह पर मां का धन्यवाद करने के लिए आए हैं। मां ने कुछ मांगे बिना ही उन्हें सब कुछ दे दिया है। घर में सुख शांति और खुशहाली बानी हुई है। उन्होंने पहले तो यहाँ आकर मां का हवन किया है। एवं उसके बाद अब वे भंडारा भी करेंगे एवं उनके घर में बच्चों की किलकारियां भी गूंज रही है। माता रानी के आशीर्वाद से घर में सभी सदस्यों की नौकरी लगी हुई है। उनके यहां पर बच्चों का मुंडन सस्कार भी यहीं किया जाता हैं। वह केवल इसी का धन्यवाद अदा करने के लिए बार-बार यहां पर आते हैं।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – गाजियाबाद से आए हुए एक श्रद्धालु अंकित गोयल का मानना है कि जब भी उन्हें कोई भी अवसर मिलता है। तो वो यहां पर आते ही मां के चरणों में अपने शीश झुकाते हैं। उन्होंने बताया है कि वे बचपन से यहां पर आ रहे हैं। वह जब भी इस मंदिर में आते हैं। तो उन्हें अपना बचपन पूरी तरह से याद आ जाता है। यहां पर आकर उन्हें बड़ा ही सुकून मिलता है और मानसिक शांति का अनुभव भी होता है। एवं उनकी सभी प्रकार की इच्छाएं भी पूरी हो जाती है।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – वहीं, एक श्रद्धालु दिव्या ने अपनी शादी हो जाने के बाद इस मंदिर की महिमा को जाना है। यहां पर आकर उन्होंने माँ से बेटा मांगा था। एवं मां के आशीर्वाद से माँ की कृपा सर उन्हें मां बनने का सौभाग्य भी मिला। अब जब भी उन्हें मौका या कोई अवसर मिलता है। तो वो माता रानी के चरणों में अपना शीश झुकाने के लिए यहाँ पर चली आती है।
त्रिपुरा सुंदरी बाला मेला – यहां पर आने वाले सभी भक्तो के मन से बस एक यही पुकार निकलती है। कि पूरा जहां है जिसकी माँ की शरण में , हम नमन करते है उस माता के कमल रुपी चरणों में। हम सब बने उस माता के चरणों कमलो की धूल एवं हम सब मिलकर मां को श्रद्धा के सुमन (पुष्प) चढ़ाएं। सभी श्रद्धालुओं की मां भगवती से बस यही एक कामना होती है। कि हे माँ आप का हाथ हमेशा मेरे सिर पर ही हो और मुझे अपना आशीर्वाद दो। हमारे पूरे परिवार में खुशियों भरा हो। हमारे घर में सुख शांति और खुशहाली सदैव बनी रहे। और हम सभी के जीवन में आपका आशीर्वाद और प्रेम प्रकाश ही प्रकाश हो। माँ के भक्त इन मनोकामनाओं एवं मां के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से यहां पर दौड़े चले आ जाते हैं।
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आइये दोस्तों आज हम बात करेंगे शहीद मेले के बारे में। और जानेंगे इस मेले के पीछे के इतिहास के बारे में। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में स्तिथ बेवर में शहीदों की स्मृति में यह शहीद मेला लगता है। यह शहीद मेला 23 जनवरी से शुरू होकर 10 फरवरी तक चलता है। लम्बे समय तक चलने वाले इस शहीद मेले में सभी जगहों से शहीदो के परिवार के लोग आते है इसके साथ ही सामान्य लोग भी आते है। इस बार 50 वें शहीद मेले के पोस्टर विनोचन राज्यपाल के द्वारा लखनऊ में पूर्ण हो चुका है।
इस शहीद मेले की समिति के प्रबंधक श्री राज त्रिपाठी ने बताया है कि शहीद मेला समिति के सानिध्य में 23 जनवरी से 10 फरवरी तक लगातार लगेगा। शहीद मेले के कार्यक्रम के लिए मेला समिति के द्वारा तैयारियां भी की जा रही हैं। इस शहीद मेले का 50 वां वर्ष होने के वजह से इस बार यह मेला बड़ी धूमधाम से लगेगा।
मेले समिति के प्रबंधक ने बताया है कि बेवर के आंदोलन में शहीद होने वाले क्रांतिकारी छात्र कृष्ण कुमार,सीताराम गुप्ता और जमुना प्रसाद त्रिपाठी की शहादत की स्मृति में यह शहीद मेला लगता है। इस मेले में होने वाले सभी कार्यक्रमों के आयोजन की समीक्षा भी की जा रही है। शहीद मेला की समिति के द्वारा 50 वें शहीद मेले का आयोजन करने के लिए अनुमति भी मांगी गई है। अनुमति मिलने के पश्च्यात ही कार्यक्रमों के आयोजन पर समिति के द्वारा विचार-विमर्श किया जाएगा।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी के बेवर में लगने वाले इस “शहीद मेला’ जंग-ए-आजा़दी में शामिल होने वाले सभी महानायकों को बड़ी ही शिद्दत के साथ याद किया जाता है। 19 दिन तक लगातार चलने वाले इस शहीद मेले में प्रत्येक दिन अलग-अलग प्रकार के लोक सांस्कृतिक- एवं सामाजिक कार्यक्रमो का आयोजन किया जाता है। जैसे की शहीद प्रदर्शनी,नाटक,फोटो प्रदर्शनी, एवं शहीद परिजन सम्मान समारोह का आयोजन होता है। और रक्तदान शिविर का आयोजन भी किया जाता है। स्वतंत्रता सेनानी सम्मेलन का आयोजन होता है। लोकनृत्य प्रतियोगिता, पत्रकार सम्मेलन, कवि सम्मेलन, राष्ट्रीय एकता सम्मेलन एवं शहीद मेला फ़िल्म फेस्टिवल आदि के आयोजन भी किये जाते हैं।
साल 1994 में थाना-बेवर, जिला-मैनपुरी उत्तर प्रदेश के सामने “शहीद मंदिर” को बनवाया गया था। यहां पर 1942 की जनक्रांति में शहीद होने वाले तीनों अमर शहीद जिनका नाम – 1 – जमुना प्रसाद त्रिपाठी 2 – विद्यार्थी कृष्ण कुमार उम्र 14 वर्ष और 3 – सीताराम गुप्त की यहाँ पर समाधि भी बनिहुई हैं। इस अनोखे ‘शहीद मंदिर’ में केवल इन 3 ही अमर शहीदों के साथ-साथ अन्य 2 शहीदों की प्रतिमाएं भी लगाई गई हैं। एक क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य माने जाने वाले मातृवेदी नामक एक गुप्त संस्था के संस्थापक एवं मैनपुरी एक्शन के पंडित गेंदालाल दीक्षित और दूसरी ओर नवीगंज नगर के शहीद देवेश्वर तिवारी की भी प्रतिमाएं यहाँ पर स्थापित की गई हैं। इसके अतिरिक्त यहां पर आज़ादी के 21 महानायकों की प्रतिमाएं एक विशाल मण्डप के नीचे लगी हुई हैं। पुरे भारत देश में केवल ये एक ही ऐसा मंडप है जिसके नीचे जंग-ए-आजा़दी के वीर योद्धाओं की स्मृति को संजोने रखने वाला यह एकमात्र मंदिर है।
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