जानिये हनुमान जी की पूजा विधि ,ध्यान मंत्र और पूजा के नियम। हनुमानजी की पूजा करना बहुत ही आसान है परन्तु उसके नियम और सावधानियां जानना भी बहुत जरूरी है। पूर्ण भक्तिभाव के साथ ही पवित्र नियम से उनकी पूजा करने से वे बहुत जल्द ही प्रसन्न होकर आपकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। आओ जानते हैं कि कैसे करें हनुमान जी की पूजा।
अपने हाथो में चावल व फूल लें और इस हनुमान पूजा मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हनुमान जी का ध्यान कीजिये-
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यं।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
ऊँ हनुमते नम: ध्यानार्थे पुष्पाणि सर्मपयामि।।
मंत्र उच्चारण करने के उपरान्त हाथ में लिए हुए चावल व फूल श्री हनुमान जी को अर्पण कर दें।
इसके पश्चात हाथ में फूल को लेकर इस हनुमान पूजा मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हनुमान जी का आवाह्न करें और उन फूलों को हनुमानजी को अर्पित कर दीजिये।
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घटस्थापना करने से पूर्व थोड़ा इसके बारे में जानिये: घट यानी मिट्टी का घड़ा। इसे नवरात्रि के प्रथम दिवस शुभ मुहूर्त में ईशान(उतर-पूर्व) कोण में स्थापित किया जाता है। घट में सर्वप्रथम थोड़ी-सी मिट्टी डाले, और फिर जौ(ज्वार) डालें। फिर उसके बाद एक परत मिट्टी की बिछा दीजिये। एक बार फिर ज्वर डालें। फिर से मिट्टी की परत बिछाइएं। अब इस पर पानी का छिड़काव करें। इस तरह ऊपर तक पात्र को मिट्टी से भर देवे। अब इस पात्र को स्थापित करके पूजा करें। जहां पर घट स्थापित करना है, वहां एक पाट रखें और उस पर साफ लाल रंग कपड़ा बिछाकर फिर उस पर घट स्थापित कीजिए। घट पर रोली या चंदन से स्वास्तिक बनाएं। घट के गले में मौली बांध दीजिये।
अब एक तांबे के कलश में भर लीजिये और उसके ऊपरी भाग पर नाड़ा बांधकर उसे उस मिट्टी के पात्र(बरतन) अर्थात घट(घड़ा) के उपर रख दीजिये। अब कलश के ऊपर पात रखें, पत्तों के मध्य में नाड़ा बंधा हुआ है, अब नारियल लाल रंग के कपड़े में लपेटकर रखें। अब घट और कलश का पूजन करें। फल ,मिठाई ,नैवेज्ञ आदि घट के आस-पास रखें। इसके बाद श्री गणेश भगवान की वंदना करें और फिर देवी का यज्ञ करें। अब देवी-देवताओं का यज्ञ करते हुए प्रार्थना करें कि
‘हे समस्त देवी और देवता, आप सभी 9 दिवस के लिए कृपया कलश में विराजित हों।
यज्ञ करने के बाद ये मानते हुए कि सभी देवता कलश में विराजमान हैं और कलश की पूजा करें। कलश को टीका करें, भोग चढ़ाएं, फूलमाला अर्पित करें, इत्र(सुगन्धित पदार्थ) अर्पित करें, नैवेद्य (प्रसाद) यानी फल-मिठाई आदि अर्पित करें।
आश्विन घटस्थापना रविवार, अक्टूबर 15, 2023 को
घटस्थापना मुहूर्त – 11:44 ए एम से 12:30 पी एम
समय – 00 घण्टे 46 मिनट्स
अभिजित मुहूर्त के दौरान घटस्थापना मुहूर्त निश्चित होता है।
घटस्थापना मुहूर्त प्रतिपदा तिथि पर है।
घटस्थापना मुहूर्त निषिद्ध चित्रा नक्षत्र के दौरान है।
प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ – अक्टूबर 14, 2023 को 11:24 पी एम बजे
प्रतिपदा तिथि समापन – अक्टूबर 16, 2023 को 12:32 ए एम बजे
चित्रा नक्षत्र प्रारम्भ – अक्टूबर 14, 2023 को 04:24 पी एम बजे
चित्रा नक्षत्र समापन – अक्टूबर 15, 2023 को 06:13 पी एम बजे
वैधृति योग प्रारम्भ – अक्टूबर 14, 2023 को 10:25 ए एम बजे
वैधृति योग समापन – अक्टूबर 15, 2023 को 10:25 ए एम बजे
नवरात्रि सबसे बहुप्रतीक्षण हिन्दू त्यौहार है, जो की नौ दिनों तक अपार भक्ति और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। एक वर्ष में चार नवरात्र होती हैं जिनमें से शारदीय नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि का बहुत अधिक प्रधानता है। कई अन्य अनुष्ठान और परंपराएं हैं जो इन दोनों नवरात्रि समारोहों के लिए समान हैं। ऐसा ही एक विशेष रिवाज है नवरात्रि घटस्थापना। शारदीय घटस्थापना, जैसा कि नाम से ही पता चलता है की इसमें घट या कलश की स्थापना की जाती है। यह अनुष्ठान नौ दिवसीय उत्सव और उमंग की शुरुआत का प्रतीक है।
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वरलक्ष्मी व्रत के दिन में महिलाएं अपने परिवार के सुखी जीवन के लिए उपवास रखती हैं और व्रत रखकर मां लक्ष्मी की पूजा करती हैं। घर की साफ-सफाई के उपरांत स्नान करके ध्यान से पूजा के स्थल को गंगाजल से शुद्ध(पवित्र) करना चाहिए। इसके बाद उपवास का संकल्प करना चाहिए।
माता लक्ष्मी जी की मूर्ति को नए वस्त्र, आभूषण और कुमकुम से सजाइये। ऐसा करने के बाद माता लक्ष्मी जी की मूर्ति को पूर्व दिशा में गणेश जी की मूर्त के साथ फर्श पर रखें, और पूजा स्थल पर थोड़ा-सा तंदू फैलाएं। एक घड़े में जल को भर कर कटोरी में रख दीजिये। इसके बाद कलश के चारों ओर चंदन लगाएं।
कलश के पास पान, सिक्का, सुपारी, आम के पात (पते) इत्यादि रख दीजिये। इसके बाद नारियल पर चंदन, हल्दी व कुमकुम लगाकर कलश पर रख दीजिये। थाली में लाल रंग का वस्त्र, अक्षत, फल, फूल, दूर्वा, दीपक़, धूप आदि से माता लक्ष्मी जी की पूजा करनी चाहिए। मां की मूर्त के समक्ष दीपक जलाएं और वरलक्ष्मी उपवास की कथा भी पढ़ें। पूजा के समापन के बाद महिलाओं को नैवेज्ञ (प्रसाद) बाँटिये।
इस दिन उपवास निष्फल रहना चाहिए। रात में आरती-अर्चना के बाद आटा गूंथना बहुत ही उचित माना जाता है। इस व्रत को करने से माता लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्त होती है।
वरलक्ष्मी व्रत पूजा के लिए आवश्यक वस्तुओं को पहले ही एकत्रित कर लेना चाहिए। इस सूची में दैनिक पूजा में उपयोग में आने वाली वस्तु शामिल नहीं की गई है। परन्तु यह केवल उन वस्तुओं को सूचीबद्ध करता है जो विशेष रूप से वरलक्ष्मी व्रत पूजन विधि के लिए महत्वपूर्ण हैं।
पुराणों,वेदो और शास्त्रों के अनुसार वरलक्ष्मी जयंती सावन के माह शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाई जाती है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह व्रत विवाहित जोड़ों को संतान प्राप्ति का सुख परदहां करता है। स्त्रीत्व के व्रत के कारण सुहागन महिलाएं इस व्रत को बड़े उमंग और उत्साह के साथ रखती हैं। इस व्रत को करने से इस व्रत से सुख, धन और समृद्धि शीघ्र ही प्राप्ति होती है। वरलक्ष्मी व्रत रखने से अष्टलक्ष्मी पूजन के समान फल(सुख,धन,समृद्धि ) की प्राप्ति होती है।अगर पति यह व्रत पत्नी के संग रखता है, तो इसका महत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। यह व्रत कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों में बड़े उत्साहऔर उमंग के साथ मनाया जाता है।और यह व्रत यह बहुत ही प्रचलित है।
ज्योतिष शास्त्रानुसार माता लक्ष्मी जी की पूजा करने के लिए सबसे ठीक समय उचित लग्न के दौरान होता ही है।माना जाता है कि यदि निश्चित लग्न के दौरान माँ लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है, तो माँ लक्ष्मी दीर्घकालिक समृद्धि प्रदान करती है।
25 अगस्त 2023, दिन – शुक्रवार
वरलक्ष्मी पूजा के लिए कोई भी उपयुक्त समय चुना जा सकता है। हालांकि,सायं (शाम) का समय जो प्रदोष के साथ आता है। देवी लक्ष्मी का पूजन करने के लिए सबसे उचित माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिवस माँ वरलक्ष्मी की पूजा करना अष्टलक्ष्मी यानी धन की आठ देवियों(माताएं) आदि लक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सन्तानलक्ष्मी की पूजा करने के बराबर है। उत्तर भारत के मुकाबले यह व्रत दक्षिण भारत में अधिक महत्वपूर्ण है। वर-लक्ष्मी व्रत माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने और आशीर्वाद लेने के लिए सबसे उचित दिनों में से एक है।
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हिंदू धर्म में एकादशी के दिवस को हरि का दिन मानकर मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री विष्णु को प्रसन्न करने के लिए पूजाओं का आयोजन किया जाता है और व्रत किए जाते हैं। माना जाता है दीपावली के बाद आने वाली देवउठनी एकादशी के दिन भगवान पूरे चार माह के बाद उठते हैं। इसलिए इसका यह नाम पड़ा था। इसके बाद ही शुभ कार्यों को किया जाता है। इस दिन किए गए व्रत में तरल पदार्थों को ग्रहण किया जाता है। जो व्यक्ति इस व्रत को नहीं रख पाता उसे पूरे दिन नारायण जी की आराधना करनी चाहिए। एकादशी में चावल को भोजन में शामिल नहीं करना चाहिए। इस एकादशी के व्रत से सौ गौ दान जितना पुण्य प्राप्त होता है। श्री हरि के उपासक इस दिन निर्जला व्रत का पालन भी करते हैं।
प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को देवोत्थान एकादशी के रूप में मनाया जाता है। कई स्थानों में इसे देवउठनी और प्रबोधिनी नाम से भी जाना जाता है। इस दिन मांगलिक कार्यों को वर्जित माना जाता है। यह दीपावली के प्रसिद्ध त्योहार के बाद आने वाली एकादशी होती है।
इस वर्ष 23 नवंबर को गुरुवार के दिन देवोत्थान एकादशी का उत्सव मनाया जाएगा। इस दिन रखे गए व्रत को पारणा मुहूर्त में ही खोलना चाहिए। इस मुहूर्त को शुभ माना जाता है और एकादशी की तिथि के अनुसार ही पूजन व दान आदि करना चाहिए। साल 2023 के मुहूर्ताें का समय कुछ इस प्रकार है
तारीख (Date) 23 नवंबर 2023 वार (Day) गुरुवार एकादशी तिथि प्रारम्भ (Ekadashi Started) 22 नवंबर रात 11 बजकर 03 मिनट पर प्रारम्भ होगी एकादशी तिथि समाप्त (Ekadashi Ended) 23 नवंबर को रात 9 बजकर 01 मिनट पर यह एकादशी समाप्त होगी पारण (व्रत तोड़ने का) समय (Parana Time) 24 नवंबर को सुबह 6 बजकर 51 मिनट से 8 बजकर 58 मिनट तक है।
पूजा के अंत में आवाहन मंत्र का उच्चारण करना चाहिए
“उठिए देव, बैठिए देव, अंगुरिया चटकावो देव, नया सूतः, नया कापास, देव उठिए कार्तिक मास।”
तुलसी पूजन के समय प्रयोग होने वाला तुलसी दशाक्षरी मंत्र
“श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यैः स्वाहा।”
दिव्य तुलसी मंत्र इस प्रकार है
“देवी त्वं निर्मिता पूर्व मर्चि तासि मुनीश्र्वरैः।
नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरि प्रिये।।”
नारायण जी को प्रेम भाव के साथ उठाने के लिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए।
“उतिष्ठ, उतिष्ठ, गोविंद उतिष्ठ गरुड़ध्वज, त्वयो चोत्तिष्ठ मानेन, चोतिष्ठम् भुव नत्रयम्”
तुलसी विवाह भी इस दिन की जाने वाली पूजा का ही हिस्सा है। इसलिए इसकी विधि के बारे में भी ज्ञान होना अति आवश्यक है। इस दिन पूजा के समय पीले रंग के वस्त्र को धारण करना शुभ माना जाता है।
इस पूजा विधि में तुलसी के पौधे के चारों और गन्ने के प्रयाग से मंडप बनाया जाता है और तोरण सजाया जाता है। तुलसी माता और शालिग्राम का पूजन किया जाता है और माता तुलसी के पौधे का एक दुल्हन की भांति श्रृंगार किया जाता है। तुलसी के साथ आंवले के पौधे को भी समीप रखा जाता है। उसके बाद दशाक्षरी मंत्र से माता तुलसी का आवाहन किया जाता है। इस मंत्र के बारे में हम आपको पहले ही बता चुके हैं। पानी का कलश भी साथ रखा जाता है और माता को सुहागी का सारा सामान अर्पित किया जाता है। अंत एक वास्तविक विवाह की तरह ही माता तुलसी और श्री हरि का विवाह किया जाता है। अंत में फल व मिठाई को प्रसाद के रूप में भक्तों द्वारा ग्रहण किया जाता है।
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आइये हम आपको बताते है की छठ पूजा कि शुरुआत कैसे हुई। ऐसा बतया जाता है कि रामायण और महाभारत के समय से ही छठ पूजा की परम्परा चली आ रही है। माना जाता है कि त्योहारों का देश भारत है। इसमें कई ऐसे पर्व है। जिन्हें बहुत कठिन माना जाता है। और इनमे से एक तो है लोक आस्था का सबसे बड़ा पर्व, छठ है।
नहाय-खाय के अनुसार ही आरंभ हुए लोकआस्था के इस चार दिवसीय महापर्व को जानते हुए बहुत सी कथाएं भी मौजूद हैं। हम आपको एक कथा के अनुसार बताते है कि छठ पूजा की शुरुआत कैसे हुई। जब महाभारत काल में पांडवों ने अपना सारा राजपाट एक जुए में हरा दिया था। उस समय द्रौपदी ने छठ व्रत किया था। इसी व्रत से उन्होंने जो भी मनोकामनाएं मांगी थी वो सारी पूर्ण हुईं थी। इसलिए पांडवों को उनका राजपाट वापस मिल गया था। इसके अलावा छठ पूजा का उल्लेख रामायण काल में भी है। एक और मान्यता के अनुसार, छठ पूजा या सूर्य पूजा महाभारत काल से ही की जा रही है। और ऐसा कहते है की छठ पूजा की शुरुआत सूर्य के पुत्र कर्ण के द्वारा कि गई थी। श्री कर्ण भगवान जी सूर्य जी के बहुत बड़े परम भक्त थे। मान्याता के अनुसार वे हर रोज घंटों तक पानी में खड़े रहकर सूर्य जी को अर्घ्य देते थे। सूर्य जी की कृपा से ही वो महान योद्धा बने थे।
किंवदंती के अनुसार बताया है कि, ऐतिहासिक नगरी मुंगेर के सीता चरण में कभी माता सीता जी भी छह दिनों तक वहाँ रहकर छठ पूजा की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार 14 वर्ष वनवास के बाद जब भगवान श्री राम वापस अयोध्या नगरी में लौटे थे। तो श्री राम जी रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों के आदेश मानते हुए एक राजसूय यज्ञ करने का फैसला किया था। इसके लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को भी आमंत्रण दिया गया था। लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान श्री राम एवं सीता माता जी को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया था। मुग्दल ऋषि की आज्ञा पर ही भगवान श्री राम एवं सीता माता ने स्वयं आश्रम पर प्रस्थान किया। और उन्हें इस पूजा के बारे में बताया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता को गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया था। और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष कि षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की पूजा करने का आदेश दिया। तभी माता सीता ने यहाँ पर ही रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान जी की पूजा की थी।
लोकआस्था और सूर्य उपासना के इस महान पर्व छठ की आज से शुरुआत हो गई है। इस चार दिवसीय त्योहार की शुरुआत नहाय-खाय की परम्परा से होती है। यह त्योहार पूरी तरह से श्रद्धा और शुद्धता का पर्व है। इस व्रत को महिलाओं के साथ ही पुरुष भी रखते हैं। चार दिनों तक चलने वाले लोकआस्था के इस महापर्व के लिए लगभग तीन दिन का व्रत रखना होता है। जिनमें से दो दिनों तक तो निर्जला व्रत रखा जाता है।
छठ पूजा को पहले केवल बिहार, झारखंड और उत्तर भारत में ही मनाया जाता था। लेकिन अब इसे धीरे-धीरे पूरे देश में मनाया जाता है, क्युकी अब सभी लोगो ने इसके महत्व को स्वीकार कर लिया है। छठ पर्व को षष्ठी का अपभ्रंश भी माना जाता है। इसी कारण इस व्रत का नाम छठ व्रत हो गया था। छठ पूजा का पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार तो चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक माह में इसे मनाया जाता है। चैत्र माह कि शुक्ल पक्ष कि षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ कहा जाता है। और कार्तिक माह कि शुक्ल पक्ष कि षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है।
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आइये हम आपको बताते है छठ पूजा के बारे में और छठ पूजा कैसे करते है ,पौराणिक कथाओं के अनुसार से छठ पूजा का महत्व आदिकाल से ही चला आ रहा है। इसका उल्लेख महाभातर में भी है। पांडवों की माता श्रीमती कुंती जी को विवाह से पहले ही सूर्य देव के आशीर्वाद स्वरुप पुत्र की प्राप्ति हुई थी। जिनका नाम कर्ण था। इसी तरह पांडवों कि पत्नी श्रीमती द्रौपदी जी ने भी अपने कस्टो को दूर करने के लिए छठ पूजा की थी। और यह वृत संतान कि प्राप्ति और संतान की मंगलकामना के लिए किया जाता है।
यह पूजा कार्तिक माह कि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होकर सप्तमी तक चलती है। प्रथम दिन मतलब चतुर्थी तिथि के दिन इसे ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। छठ पूजा नहाय-खाय से ही प्रारम्भ होती है। इस दिन व्रत करने वाले लोग सबसे पहले स्नान करते है और फिर नए वस्त्र धारण करते है। फिर सब पूजा करते है और पूजा के बाद चना दाल, कद्दू की सब्जी और चावल को प्रसाद मानकर उसे ग्रहण करते है। इस दिन जो भी व्रत रखने वाले होते है वो सर्वप्रथम भोजन करते हैं। उसके बाद ही परिवार के सभी सदस्य भोजन करते हैं। फिर उसके अगले दिन ही पंचमी को खरना व्रत किया जाता है। इस दिन संध्याकाल के समय उपासक प्रसाद के रूप में गुड़-खीर, रोटी तथा फल खाते है। फिर उसके बाद वो अगले 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखते हैं। इसकी मान्यता यह है कि खरना पूजन से ही छठ देवी प्रसन्न हो जाती है और प्रसन्न होकर घर में वास करती हैं। इसलिए छठ पूजा की महत्वपूर्ण तिथि यानि षष्ठी पर नदी या जलाशय के तट पर भारी संख्या में श्रद्धालु एकत्रित हो जाते है। उसके बाद वो सभी उभरते हुए सूर्य को अर्ध्य समर्पित करते है। और इसी के साथ छठ पूजा का पर्व समाप्त करते है।
ॐ अद्य अमुक गोत्रो अमुक नामाहं मम सर्व पापनक्षयपूर्वक शरीरारोग्यार्थ श्री सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।
]]>ॐ एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पया मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर:॥
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अहोई अष्टमी पूजा विधि के दौरान सर्वप्रथम प्रातःकाल नित्यकर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र पहनिए। इसके पश्चात पूजन स्थल को साफ-सफाई करके उपवास का संकल्प लीजिये। और पुरे दिन भर निर्जला उपवास का पालन कीजिये। इसके पश्चात माँ दुर्गा और अहोई माता जी का ध्यान करते हुए शुद्ध घी दीपक जलाएं। आराधना स्थल को साफ करके उत्तर व पूर्व दिशा या ईशान कोण में चौकी को स्थापित करें। चौकी को गंगाजल छिड़कर उसे पवित्र करके उस पर लाल या पीला रंग वस्त्र बिछाइये।इसके बाद माता अहोई जी की मूर्त स्थापित करें।अब गेंहू के दानों से चौकी के बीच में एक ढेर बनाइये, इस पर जल से भरा एक तांबे का कलश जरूर रखिये।इसके बाद माता अहोई जी के चरणों में मोती की माला या चांदी के मोती रखिये।
अहोई अष्टमी पूजा विधि को ध्यान में रखते हुए हमे आचमन विधि करने के बाद,चौकी पर धूप-दीपक जलाएं और अहोई माता जी को पुष्प (फूल) चढ़ाइये।इसके पश्चात अहोई माता जी को रोली, दूध और भात का अर्पण कीजिये।बायना के साथ 8 पूड़ीया, 8 मालपुए एक कटोरी में लेकर चौकी के ऊपर रखिये।इसके पश्चात अपने हाथ में गेहूं के सात दानो और फूलों की पंखुडिया लेकर अहोई माता जी की कहानी पढ़िए।
अहोई अष्टमी माता की कहानी पूर्ण होने पर, अपने हाथ में लिए गेहूं के दानो और पुष्प (फूल) माता जी के चरणों में अर्पित कर दीजिये। इसके उपरांत मोती की माला या चांदी के मोती एक साफ दागे या कलावा में पिरोकर गले में पहनिए।अब तारों और चन्द्रमा को अर्घ्य देकर इनकी पंचोपचार (हल्दी, कुमकुम, अक्षत, पुष्प और भोग) के द्वारा पूजा कीजिये।पूजा में रखी गई दक्षिणा अर्थात बायना अपनी सास (माँ) या घर की बुजुर्ग महिला को दें और उनका आशीर्वाद ले।अंत में जल को ग्रहण करके अपने उपवास का पूरा करें और भोजन को ग्रहण कीजिये।
अहोई अष्टमी पूजा विधि की सामग्री की सूची | Ahoi Asthami Puja Vidhi Samagree
ज़य अहोई माता ज़य अहोई माता।
तुमको निसदिन ध्यावत हरि विष्णु धाता॥
ब्राहमणी रुद्राणी कमला तू हे है जग दाता।
सूर्य चन्द्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता॥
माता रूप निरंजन सुख संपत्ती दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता॥
तू हे है पाताल बसंती तू हे है सुख दाता।
कर्मा प्रभाव प्रकाशक जज्निदधि से त्राता॥
जिस घर तारो वास वही में गुण आता।
कर ना सके सोई कर ले मन नहीं घबराता॥
तुम बिन सुख ना होवय पुतरा ना कोई पाता।
खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता॥
सुभ गुण सुन्दर युक्ता शियर निदधि जाता।
रतन चतुर्दर्श तौकू कोई नहीं पाता॥
श्री अहोई मा की आरती जो कोई गाता।
उर् उमंग अत्ती उपजय पाप उत्तर जाता॥
अहोई अष्टमी पूजा विधि – अहोई अष्टमी का व्रत (Ahoi Ashtami Vrat 2023) करवा चौथ व्रत के चार दिन पश्चात और दिवाली से आठ दिन पहले रखा जाता है। उत्तर भारत में इस व्रत का बहुत महत्व है। अहोई अष्टमी को अहोई आठे के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास को निर्जला रखा जाता है। पूजन के बाद सितारों को देखकर और चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद इस उपवास को खोला जाता है। व्रत करने वाली माताए अहोई माता जी से अपनी संतान की दीर्घायु और उनके लिए खुशहाली मांगती हैं। अहोई अष्टमी के व्रत करने से सम्पूर्ण मनोकामनाए पूरी हो जाती है।
अहोई माता की पूजा का शुभ मुहूर्त | Ahoi Mata Ki Puja Ka Muhurat
रविवार, 05 नवंबर 2023
तारों को देखने का सायं काल का समय: 05:58 अपराह्न लगभग।
अष्टमी तिथि शुरू: 05 नवंबर 2023 पूर्वाह्न 00:59 बजे।
अष्टमी तिथि समाप्त: 06 नवंबर 2023 पूर्वाह्न 03:18 बजे।
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