रामचरितमानस तुलसीदास की अधिक प्रमुख कृति में से एक है। इस रामचरितमानस की रचना संवत 1631 ई. की रामनवमी के दिन अयोध्या में प्रारम्भ की गई थी किन्तु इसका कुछ अंश काशी में निर्मित किया गया था। यह इसके किष्किन्धा काण्ड के शुरुआत में आने वाले एक सोरठे से निकलती है। उसमें काशी सेवन का उल्लेख किया गया है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल पक्ष 5 को रविवार के दिन हुई थी। किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती है। इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती है। यह रचना अवधी बोली में लिखी हुई है। इसके मुख्य छन्द एवं चौपाई और दोहा हैं।बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के छन्दों का भी प्रयोगकिया गया है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद ही दोहा होता है और इन दोहों के साथ-साथ कड़वक संख्या भी दी गयी है। इस प्रकार के सभी कड़वकों की संख्या 1074 है।
रामचरितमानस एक चरित-काव्य है। जिसमें भगवान् श्री राम का सम्पूर्ण जीवन-चरित को वर्णित किया हुआ है। इसमें ‘चरित’ एवं ‘काव्य’ दोनों के ही गुण समान रूप से मोले हुए हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं। इसी कारण वह ‘चरित’ एवं ‘काव्य’ होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी माना जाता है। इस रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण कुछ इस प्रकार से है।
रामचरितमानस की कथा का संक्षेप कुछ इस प्रकार से है –
रामचरितमानस – दक्षों से लंका को युद्द में जीतकर राक्षसराज रावण वहाँ अपना राज करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से पृथ्वी बहुत ही परेशान हो गयी और फिर वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर भगवान् श्री हरि की स्तुति की,जिसके उत्तर में फिर आकाशवाणी हुई कि हरि दशरथ-कौशल्या के पुत्र श्री राम के रूप में अयोध्या में जन्म ले चुके है। और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार को हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन श्री हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में जन्म लिया । दशरथ की दो रानियाँ और थीं- एक कैकेयी और दूसरी सुमित्रा। उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों- भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न ने भी जन्म लिया।
रामचरितमानस – राक्षसों का अत्याचार उत्तर भारत में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था। जिसके कारण मुनि विश्वामित्र अपना यज्ञ शांति से नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र श्री राम के रूप में श्री हरी का अवतरण हुआ हैं। वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से श्री राम की याचना की। राम और लक्ष्मण की सहायता लेकर उन्होंने अपने यज्ञ को पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक सुबाहु भी था, जो मारा गया था और दूसरा मारीच था। जो राम के बाणों से आहत होकर सौ योजन की दूरी पर समुद्र को पार करके चला गया था । जिस समय में धरी राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में निवास कर रहे थे। मिथिला में धनुर्यज्ञ का आयोजन भी किया गया था। जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण भी प्राप्त हुआ था । अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला गये। मिथिला के राजा जनक ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर (विवाह) हेतु निमंत्रण दिया था । रावण और बाणासुर जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस निमंतरण आने पर वहाँ गये थे। किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर पुनः लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने भी सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का अत्यंत प्रयत्न किया था। परन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहजता से उस धनुष को तोड़ दिया और सीता से विवाह किया। विवाह के अवसर पर अयोध्या में निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये एवं विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।
रामचरितमानस – राजा दशरथ की अवस्था समय के अनुसार धीरे-धीरे ढलने लग गई थी इसलिए उन्होंने श्री राम को अपना युवराज पद देने का विचार किया। संयोग से उस समय कैकेयी के पुत्र भरत सुमित्रा के पुत्र शत्रुघ्न के साथ अपने ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी थी जिसका नाम मन्थरा था उसको जब यह समाचार प्राप्त हुआ। उसने कैकेयी को यह समाचार सुनाया। प्रथम बार तो कैकेयी ने यह कह कर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से जो ज्येष्ठ पुत्र होता है वही राज्य का उत्तराधिकारी होता है। यह उसके राजकुल की परम्परा भी है। परन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की उपस्तिथि के बिना जो आयोजन किया जा रहा है। उसमें कोई दुरभि-सन्धि है। कैकेयी ने उस आयोजन को निष्फल बनाने का प्रण लिया और कोप भवन की ओर चली गयी। फिर उसने दशरथ से उनके मनाने पर राजा दशरथ से दो वर देने के लिए वचन लिया। जिसमे से एक राम के लिए 14 वर्षों का वनवास था और दूसरे वर में भरत के लिए युवराज का पद माँग लिया। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार श्री राम ने वन की ओर प्रस्थान किया तो उनके साथ माता सीता भी चलने को तैयार हो गई थी और लक्ष्मण ने भी वन में जाने के लिए उन्ही के साथ प्रस्थान किया।
रामचरितमानस – कुछ ही दिनों पश्च्यात जब राजा दशरथ ने राम के विरह में अपना शरीर त्याग दिया। भरत को ननिहाल से बुलाया गया और उन्हें अयोध्या राज्य का सिंहासन दे दिया गया। परन्तु भरत ने उसे अस्वीकार कर दिया और वे श्री राम को वापस लाने हेतु चित्रकूट जा पहुँचे। जहाँ उस समय श्री राम निवास कर रहे थे। परन्तु श्री राम ने पुनः लौटने से साफ़ इंकार कर दिया। भरत के अधिक अनुरोध करने पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ भारत को दे दीं। जिन्हें भारत अयोध्या राज्य में लाकर भरत ने राज सिंहासन पर रखा दिया और वे राज्य का कार्यभार सँभालने लग गए । चित्रकूट से चलकर श्री राम दक्षिण के जंगलों की ओर चले गए । जब वे पंचवटी में निवास कर रहे थे तब रावण की एक बहन शूर्पणखा एक मनमोहक रूप को धारण कर वहाँ आ गई और श्री राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे श्री राम से विवाह करने का प्रस्ताव दिया । श्री राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना रौद्र रूप को धारण कर लिया । यह देखकर श्री राम के संकेतों से उनके भाई लक्ष्मण ने उसके नाक-कान को काट दिया । इस प्रकार कुरूप हुई शूर्पणखा अपने भाई खर एवं दूषण के पास गयी और उन्हें श्री राम से युद्ध करने के लिए प्रेरित भी किया। खर और दूषण अपनी को सेना लेकर श्री राम पर आक्रमण कर दिया परन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध करते हुए मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के समीप गयी और उसने उसे सारी घटना रावण को सुनायी। और फिर रावण ने मारीच की सहायता ली जिसे विश्वामित्र के आश्रम में श्री राम ने युद्ध में आहत किया था। माता सीता का हरण कर लिया। जिसके परिणामस्वरूप श्री राम को रावण के साथ युद्ध करना पड़ा।
रामचरितमानस –तुलसीदास जी की भक्ति की अभिव्यक्ति भी इसमें अत्यन्त विशद रूप से की गई है। अपने आराध्य के बारे में उन्होंने ‘रामचरितमानस’ एवं विनय-पत्रिका’ में कई बार कहा है। कि उनके श्री राम का चरित्र ही ऐसा है कि जो एक बार भी उसे शांत मन्न से सुन लेता है। वह व्यक्ति उनका परम भक्त बन जाता है। हकीकत में तुलसीदास ने अपने आराध्य के चरित्रकी कल्पना ही इस प्रकार से की है। यही मुख्य कारण है कि इसने पुरे उत्तरी भारत पर कई सदियों से अपना अद्भुतम एवं प्रचंड प्रभाव डाला हुआ है। एवं यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण भी किया है। हर घर-घर में ‘रामचरितमानस’ का पाठ लगातार पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से होता आ रहा है।एवं इसे एक धर्म ग्रन्थ के रूप में भी देखा जाता है। इसके आधार पर ही आज भी गांव में प्रतिवर्ष रामलीलाओं का आयोजन भी किया जा रहा है। जैसा की विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। उत्तरी भारत का रामचरितमानस सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। और इसने मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्च स्तरीय सफलता भी प्राप्त की है।
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