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हिंदू धर्म में की जाने वाली छठ पूजा भगवान सूर्य जी को समर्पित होती है। छठ पूजा के पर्व में सूर्य के साथ-साथ, प्रकृति, उषा, वायु, जल और उनकी बहन छठी माता जी को भी पूजा जाता है। इसे पूरे भारतवर्ष में चार दिनों तक मनाया जाता है। इन दिनों भगवान सूर्य को पूजा जाता है और उपवास रखकर उनको प्रसन्न किया जाता है। छठ पूजा का व्रत लिंग-विशिष्ट तो नहीं है, परंतु ज्यादातर महिलाओं द्वारा यह व्रत रखा जाता है।
इस व्रत के अनुष्ठानों का पालन करना बहुत कठिन होता है। भारत के साथ साथ नेपाल में भी छठ पूजा के उत्सव को विशेष माना जाता है। देश में उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। बिहार और झारखंड में सूर्य देव की पूजा को मान्यता प्राप्त है, छठ पूजा के दिन इन स्थानों में बड़े स्तर पर छठ पूजा के त्योहार का आयोजन किया जाता है।
आइये हम आपको बताते है, छठ पूजा के बारे में और छठ पूजा का ये पर्व कब मनाया जाता है। छठ पूजा का यह पर्व हमेशा ही कार्तिक माह कि शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। आईये अब हम जानते हैं कि वर्ष 2023 में छठ पूजा का महापर्व कब है और खरना कि तारीख, नहाय खाय कब दिया जायेगा। इस दिन सैम के समय डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
इस वर्ष छठ पूजा का शुभ मुहूर्त
छठ पूजा-रविवार,19 नवंबर, 2023 को है।
सूर्योदय के समय छठ पूजा के दिन – 06:13 ए एम्
सूर्यास्त के समय छठ पूजा के दिन- 05:32 पी एम
षष्ठी तिथि प्रारम्भ – नवम्बर 18, 2023 को 09:18 ए एम बजे
षष्ठी तिथि समाप्त – नवम्बर 19, 2023 को 07:23 ए एम बजे
सूर्य देवता के उपासकों के लिए यह पर्व बहुत महत्वपूर्ण होता है और वर्ष में दो बार आने वाले इस उत्सव का भक्त बहुत उत्सुकता से इंतजार करते हैं। अलग अलग स्थानों पर इसे कई नामों से जाना जाता है। छठ पूजा को छठ माई पूजा, सूर्य षष्ठी पूजा, डाला छठ, छठी माई पूजा आदि नामों से जाना जाता है। छठ पूजा का आरंभ कब हुआ? इस प्रश्न का उत्तर पौराणिक कथाओं में मिल जाता है और छठ पूजा का इतिहास जानकर भी आपको इसका ज्ञान हो जाएगा। छठ पूजा के बारे में सतयुग और द्वापर के समय भी सुनने को मिलता है। छठ पूजा के अनुष्ठान बहुत कठिन होते हैं किसी बड़े को साथ में लेकर ही इसकी पूजा व्रत की विधि को जानकर ही करना चाहिए।
यदि घर में किसी को पूरे अनुष्ठान का ज्ञान नहीं तो किसी पुजारी या ज्योतिष शास्त्र के विद्वान से छठ पूजा की जानकारी लेनी चाहिए। वैदिक मंत्रों के जानकार की सहायता से भी आप छठ पूजा को करवा कर उसका फल प्राप्त कर सकते हैं। आइए जाने कब और किस प्रकार इन चार दिनों को मनाया जाता है।
छठ पूजा का पर्व प्रत्येक वर्ष दो बार आता है जिसमें एक समय गर्मियों का और दूसरा सर्दियों का समय होता है। चार दिनों तक चलने वाला यह पर्व एक बार होली और दूसरी बार दीपावली के समीप आता है। दोनों ही हिंदू धर्म में मनाए जाने वाले प्रसिद्ध त्योहार है जिसमें छठ पूजा का पर्व भी मुख्य हो जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष के चैत्र माह में होली के त्योहार के छठे दिन को छठ पूजा का पर्व मानकर मनाया जाता है। कई स्थानों में इस दिन को सूर्य पूजा और चैती छठ कहा जाता है।
वहीं वर्ष में दूसरी बार यह पर्व कार्तिक छठ के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक मास में आने वाली दिवाली के छठे दिन छठ पूजा को मनाया जाता है। इस पर्व के नाम राज्यों व क्षेत्रों के अनुसार अलग हो सकते हैं लेकिन जिस भाव को मन में रखकर इसे मनाया जाता है, वह सभी स्थानों पर समान ही होता है। संतान प्राप्ति की कामना से कई भक्त इस पर्व को मनाते हैं। सूर्य भगवान के उपासक आशीर्वाद पाने के लिए इनका पूजन करते हैं। दिवाली और होली के छठे दिन से आरंभ इन चार दिनों की गणना आप आसानी से कर सकते हैं। चारों दिनों को विभिन्न नामों से बुलाया जाता है और प्रत्येक दिन का अपना एक विशेष महत्व है।
इसे डाला छठ व्रत भी कहा जाता है जिसे छठ पूजा का आरंभ माना जाता है। इस दिन का संबंध स्नान करने और भोजन खाने से है। इस दिन भक्त पवित्र नदियों में स्नान कर अपने तन और मन को पवित्र करते हैं। गंगाजल या पवित्र नदियों के जल को किसी पात्र में डालकर भक्तों द्वारा घर ले जाया जाता है। इसके उपरांत लौकी भट अर्थात आम की लकड़ी का प्रयोग करके मिट्टी के चूल्हे पर भोजन बनाया जाता है। जिससे पहले सूर्य देव को भोग लगाया जाता है और फिर भक्त प्रसाद के रूप में स्वयं भोजन ग्रहण करते हैं।
छठ पूजा के दूसरे दिन को खरना के नाम से जाना जाता है। इस दिन मीठे पकवान जैसे थेकुआ-गुझिया और गुड़ की खीर बनाई जाती है। जिसे भगवान सूर्य को चढ़ाया जाता है और शाम की पूजा के बाद प्रसाद के रूप में ग्रहण करके व्रत को खोला जाता है। इस व्रत के पूर्ण होने बाद अगला सबसे कठिन व्रत शुरू हो जाता है।
इस तीसरे दिन के नियमों का पालन करना ही छठ पूजा को हिंदू धर्म के कठिन पर्वों की सूची में स्थान दिलाता है। खरना की शाम को आरंभ किया गया व्रत 36 घंटो तक चलता है। यह तीसरा दिन भक्तों की परीक्षा का दिन माना जाता है। पूरा दिन निर्जला उपवास रखते हुए भक्त सूर्य देव और माता छठी की आराधना और संध्या अनुष्ठान करके दिन व्यतीत करते हैं और सुबह शाम पाठ करते हैं।
इस दिन की सुबह 36 घंटे लंबा कठिन उपवास पूर्ण हो जाता है। इस चौथे दिन को उषा अर्घ्य और पारण दिवस का नाम दिया गया है। बिहनिया नाम के अनुष्ठान को करने के बाद अदरक और चीनी खाकर व्रत को खोल दिया जाता है। यह दिन पूजा का अंतिम चरण है। इस दिन संतान के लिए रक्षा की कामना से पूजन किया जाता है। कई स्थानों में व्रत को कच्चे दूध के शरबत पी कर तोड़ा जाता है।
छठी माता को समर्पित इस पर्व का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में देखने को मिलता है। पुराणों में लिखित कथा के अनुसार एक समय में प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र राजा प्रियव्रत की कई वर्ष बीत जाने के बाद भी कोई संतान न थी। महर्षि कश्यप ने राजा को दुखी देखकर पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ करने की आज्ञा दी। ऋषि की आज्ञा अनुसार राजा ने ऐसा ही किया, जिससे उसकी पत्नी ने मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन शिशु की जन्म लेने के समय ही मृत्यु हो गई। जिस से सभी बहुत दुखी हुए।
उसी समय सभी के दुखों के निवारण हेतु माता षष्ठी आकाश से प्रकट हुई। राजा के प्रार्थना करने पर माता ने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं जगतपिता ब्रह्मा जी की मानस पुत्री हूं और संसार के सभी बालकों की रक्षा मैं ही करती हूं। संतान सुख से वंचित भक्तों को संतान प्राप्ति का आर्शीवाद देती हूं।
अपना परिचय देने के बाद माता ने जैसे ही मृत शिशु को स्पर्श किया, वह जीवित हो उठा और रोना आरंभ कर दिया। देवी द्वारा किए इस चमत्कार को देखकर राजा प्रसन्न हो गए और माता को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लिया। इसके बाद से राजा ने प्रतिदिन माता षष्ठी की आराधना करना आरंभ कर दी। कुछ ही समय के बाद यह पूजा की तरह की जाने लगी और भक्तों द्वारा व्रत किए जाने लगे।
छठ पूजा का इतिहास सूर्य आराधना के आरंभ होने से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं में विस्तार से इसके बारे में बताया गया है। छठ पर्व की शुरूआत महाभारत के द्वापर युग में हुई थी। सर्वप्रथम सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा को किया था। वह पानी में खड़े रहकर काफी लंबे समय तक सूर्यदेव का पूजन करते थे। सूर्य भक्त कर्ण बहुत बड़े योद्धा थे। इसी के साथ साथ द्रौपदी ने भी सूर्य देव की आराधना की थी। सूर्य की बहन छठी माता के इतिहास की बात करें तो राजा प्रियवंद ने सबसे पहले छठी मैया जी की पूजा को किया था।
कथाओं के अनुसार छठ माता को ईश्वर की बेटी देवसेना कहा गया है। जिनकी संतान प्राप्ति की कामना से प्राचीन काल से पूजा होती आ रही है। छठ देवी को सूर्य की बहन कहा जाता है। इसलिए इनका इतिहास भी सूर्य देव से जुड़ा हुआ है। उसके बाद भगवान श्री राम द्वारा किए गए सूर्य पूजन के बारे में ग्रंथों में स्पष्ट लिखा हुआ है। श्री राम जी सूर्यवंशी घराने से संबंध रखते थे। सीता माता के साथ श्री राम ने षष्ठी तिथि को व्रत रखा था। अंत पूजा करके सूर्य को अघ्र्य भी दिया था।
हिंदू धर्म मे छठ पूजा के उत्सव को पूरी प्रतिष्ठा के साथ भक्तों द्वारा मनाया जाता है। चार दिन की अवधि वाली इस त्योहार में किए जाने वाले अनुष्ठानों का पालन करना बहुत मुश्किल है। जिसमें पवित्र नदियों में स्नान करना, उपवास के समय पीने के पानी से दूर रहना, अघ्र्य देना, पानी के स्त्रोतों व तालाबों में लंबे समय तक खड़े रह कर अराधना करना इसके कठिन कर्मकाण्ड का ही एक अंग है।
जिसे भक्त पूरी आस्था और श्रद्धा के साथ करते है। जिससे की वह भगवान सूर्य का आर्शीवाद प्राप्त कर सकें। पूजा के समय महिलाओं द्वारा ज्यादा व्रत रखें जाते हैं। संतान सुख से वंचित महिलाएं विशेष रूप से माता छठी के आर्शीवाद हेतु इस व्रत का पालन करती हैं, क्योंकि कहा जाता है जिस पर माता छठी का आर्शीवाद पड़ता है उसको संतान प्राप्ति होती है।
छठ पूजा को हिंदू धर्म में मनाए जाने वाले कठिन पर्वाें में गिना जाता है। हर साल दो बार मनाए जाने वाला यह पर्व हिंदू धर्म के प्रसिद्ध त्योहारों के छठे दिन आता है। होली और दीपावली हिंदू धर्म के बहुत पवित्र त्योहार माने गए हैं और यह पूजा इन दो त्योहारों के साथ ही मनाई जाती है। जिससे कि इस उत्सव का महत्व बहुत बढ़ जाता है।
सूर्य देव के उपासक इन चार दिनों में से दो दिनों तक निर्जला व्रत के नियमों का पालन करते हैं। इस व्रत में जल और अन्न को ग्रहण करना वर्जित माना जाता है। सूर्य षष्ठी का दिन मानकर इसदिन सूर्य देव को पृथ्वी पर जीवन प्रदान करने के लिए आभार व्यक्त किया जाता है। माना जाता है कि सूर्य पूजा से मनुष्य अपने मन, आत्मा, क्रोध, ईर्ष्या और अहंकार पर आसानी से नियंत्रण पा सकता है।