astrocare
domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init
action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in C:\inetpub\vhosts\astroupdate.com\httpdocs\wp-includes\functions.php on line 6114संत दादू दयाल जी – भारत एक विशाल देश है जिसे हम प्राचीन काल से ही साधु संतो की नगरी के नाम से भी सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है। और आज भी भारत को संतो की नगरी के रुप में जाना जाता है। भारत देश में अनेक से संत महात्मा और कवियों ने अपनी अलग से पहचान बन रखी है उन में से एक महान भक्तिकाल ज्ञानश्रयी शाखा के कवी हम आज संत श्री दादू दयाल जी के बारे में जानते है। संत दादू दयाल जी का जन्म समय विक्रम संवत् 1601 में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को अहमदाबाद में हुआ था.जब इनका जन्म हुआ तब इनका नाम महाबली नाम से जाने जाते थे और जब इनकी पत्नी की मृत्यु होने के बाद इन होने गृहस्त आश्रम को छोड़कर एक सन्यासी बन गये थे और दादू पंथ में चले गए गये थे और ये दयालु प्रवर्ति एवं कोमल ह्रदय के व्यक्तित्व होने के कारण इन का नाम “दादू दयाल” पड़ गया था।
संत दादू दयाल जी – संत नाम से विख्यात दादू हिंदी गुजराती राजस्थानी आदि कई भाषाओँ के ज्ञाता थे इन्होने कही शबद शाखी एवं इन्होने प्रेमभाव पूर्ण रचनाये लिखी इन्होने जात – पाँत का निराकरण हिन्दू – मुसलमानों की एकता आदि विषयो पर भी पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय कोमल को ही प्रेरित किया है। संत दादू दयाल ने राजस्थान के फतेहपुर सिकरी में अकबर से भेट करने के बाद ये भक्ति का प्रचार प्रसार करने लगे फिर ये राजस्थान में नारायणा में रहने लगे और नारयणा में ही 1603ईस्वी में अपनी अंतिम साँसे ली और पंच तत्व में मिल गये इन की मृत्यु के बाद संत दादू एवं उनकी भक्ति का प्रचार प्रसार उनके 52 शिष्य थे इनमे से रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल प्रमुख थे. जिन्होंने अपने गुरु की शिक्षाएँ जन जन तक फैलाई संत दादू वाणी की शिक्षाएँ आज भी दादुवाणी की पुस्तकों में भी संग्रहित है.दादू दयाल ने बहुत ही सरल भाषा में अपने विचारो को व्यक्त किया है इनके अनुसार ब्रह्मा से ओकार की उत्पति और ओंकार से पांच तत्वों की उत्पति हुई. माया के कारण ही आत्मा और परमात्मा के मध्य भेद होता है. दादूदयाल ने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को ही अत्यंत मत्वपूर्ण बताया है क्यों की गुरु के बिना किसी भी प्रकार का ज्ञान पाना संबव नहीं है गुरु के बिना हम ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर पाते है संत दादू दयाल जी को 11 वर्ष की आयु में ही ईश्वर ने एक वृद्ध व्यक्ति के रुप में दर्शन दिए और जिन होने उन्हें दर्शन दिए वो जिन्दा संत कबीर के रुप में उन मिले आज भी वृद्धानन्द कबीर साहेब को दादू संत के गुरु के रुप में जाने जाते है
संत दादू दयाल जी – संत दादू दयाल जी का जीवन एक गरीब परिवार में हुआ था और ना ही उन के परिवार सम्बंद किसी राजशायी परिवार था क्यों की प्राचीन काल में इतियास का मुख्य केंद्र राजघराने या उन के दरभारी हुआ करते थे दादू दयाल कौन थे उन के माता-पिता का नाम क्या था किस जाती से थे इन सब के बारे में विद्वानों को ले कर भी बारी मतभेद हुए है लेकिन कुछ विद्वानों के अनुशार इस प्रकार से बतया गया है एक किंवदंती के अनुसार, कबीर की भाँति दादू भी किसी कवाँरी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे, जिसने बदनामी के भय से दादू को साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। बाद में, इनका लालन–पालन एक धुनिया परिवार में हुआ। इनका लालन–पालन लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण ने किया। एक महान आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के मतानुसार इनकी माता का नाम बसी बाई था और वह ब्राह्मणी थी। यह किंवदंती कितनी प्रामाणिक है और किस समय से प्रचलित हुई है, इसकी कोई जानकारी नहीं है। सम्भव है, इसे बाद में गढ़ लिया गया हो। दादू के शिष्य रज्जब ने लिखा है–
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः।
उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।
घीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब हीं ठौर
दादू बकता बहुत है मथि काढै ते और
यह मसीत यह देहरा सतगुरु दिया दिखाई
भीतर सेवा बन्दगी बाहिर कहे जाई
दादू देख दयाल को सकल रहा भरपूर
रोम-रोम में रमि रह्या तू जनि जाने दूर
केते पारखि पचि मुए कीमति कही न जाई
दादू सब हैरान हैं गूँगे का गुड़ खाई
जब मन लागे राम सों तब अनत काहे को जाई
दादू पाणी लूण ज्यों ऐसे रहे समाई
संत दादू दयाल जी – ऐसी कहि रचनाये संत दादू दयाल जी ने लिखी है और ऐसी दादू जी की रचनाये अनेक बातो का संकेत देती है संत दादू जी समकालीन नहीं थे फिर फिर भी उन होने कहि साखियो में जिक्र किया है की उनको बड़े बाबा के रुप में कबीर जी मिले थे,जिन्हे ही अपना सतगुरु माना है संत दादू दयाल जी की कहि साखियां ये भी संकेत देती है की कबीर नाम ही स्वयं परमात्मा का है जीनके नाम लेने मात्र से ही संसार सागर पार लगया जा सकता है
संत समागम के महान साधु जिनकी आत्मा परमात्मा से मिलने के बाद दादू के सम्प्रदाय धीरे धीरे पांच उपसम्प्रदायो में विभाजित हो गए
संत दादू दयाल जी के सत्संग स्थल को अलक दरीबा के नाम से भी जाना जाता है संत दादू दयाल जी का नाम दादू इसलिए रखा गया था की वो अपनी परोपकार करने में हमेशा आगे रहते थे और वो कभी भी अपना परया नहीं समझ थे जो वस्तु उन्हें प्रिय थी वो भी परोपकार करने के लिए दुसरो की भलाई की लिए दे देते थे उन के इसी सिद्धांत के आधार पर उन का नाम दादू रखा गया था
संत दादू दयाल जी – संत दादू दयाल जी का उद्देश्य पंथ की स्थापना करने से नहीं था क्युकी वो इतना ही चाहते की सभी सम्प्रदाय के लोग मिल जुल कर रहे एवं भाईचारे की भावना को बढ़ाने से लोगो में एक दूसरे के प्रति दयाभावना रकने से और सभी लोग अपने अपने सिद्वांतो पर अपने जीवन का निर्माण किया जाये सामूहिक भावनाओ के परिणाम स्वरुप दादू पंथ का उदय हुआ था दादू पंथ के अनुसार उन का एक ऐसा पंथ है जिसमे तनिक भर भी विद्धमान नहीं है सभी सम्प्रदाय के लोगो के लिए आदर भावना है
संत दादू दयाल जी – संत दयाल ने अपनी रचनाओं में गुरु की महिमा के बारे में ज़ोर शोर से जोर दिया है और गुरु बिना और गुरु की
शिक्ष्या लिये बिना जिंदगी में अँधेरा ही अँधेरा व्याप्त रहता है। इंसान के लिए अपने जीवन को गुरु के बगैर सांसारिक दृष्टि से विरक्त देखना बहुत ही बड़ा कठिन कार्य होता है। क्यों की गुरु के बिना एक अच्छा मार्गदर्श्क दिखाने वाला कोई नहीं होता है गुरु को हर कार्य में सर्वश्रेष्ठ परमात्मा दर्जा दिया गया है यद्यपि इनकी रचनाओं में गुरु की महिमा का बखान हुआ है परंतु उन्होंने कहीं पर भी अपने गुरु के नाम में को प्रदर्शित नहीं किया है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब वे 11 वर्ष की आयु में थे तब वर्द्ध के रुप में परमात्मा ने स्वयं इनको दर्शन दिए और उनके स्पर्श मात्र से संत दयाल की सुषुप्ति अवस्था छूट गई। वह संसार के मोह को छोड़कर संसार को सही दिशा और ज्ञान के प्रकाश को बढ़ावा देने हेतु सांसारिक जीवन से विरक्त हो गए।
संत दयाल एक निर्गुणी उपासक थे और इन्होंने सत्संग के माध्यम से ही गुरु की महिमा का बखान किया और उन्होंने अपनी रचना में लिखा है:-
हरि केवल एक अधारा, सो तारण तिरण हमारा।।टेक
ना मैं पंडित पढ़ि गुनि जानौ, ना कुछ ग्यान विचारा।।1
ना मैं आगम जोंतिग जांनौ, ना मुझ रूप सिंगारा।।