संत दादू दयाल जी की सम्पूर्ण जीवनी – Sant Dadu Dayal Ji ki Sampurn Jivani
भारत देश सनातन काल से ही विश्व गुरु की उपाधि पर आसीन रहा है। इसका मुख्य कारण है कि इस पावन धरा पर संतों का आगमन होना। भारतवर्ष में बहुत ऋषि-मुनियो व संतो ने जन्म लेकर भारत की धारा को पवित्र किया है। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया के साथ-साथ विश्व गुरु भी कहा जाता है। यहां पर संतों की कृपा से जो शास्त्र, पुराण, ज्ञान के भंडार निर्मित किए गए वह अद्वितीय है। भारत खंड आज ऋषियों व संतो के उपकार को कभी भी नहीं भूल सकता। आज ऐसे ही एक महान संत श्री दादू दयाल महाराज के विषय में हम इस लेख में चर्चा करने वाले। दोस्तों, संत दादू दयाल महाराज के जीवन परिचय को लेकर संपूर्ण विवेचना आज आप इस लेख में पढ़ने वाले हैं। इस लेख में आप जानेंगे दादू दयाल जी के गुरु का नाम, रहने का स्थान, मृत्यु स्थान, मंदिर आदि की विशेष जानकारी आपको इस लेख के माध्यम से देने का भरपूर प्रयास किया जा रहा है।
संत दादू दयाल जी का जीवन परिचय – Sant Dadu Dayal Ji Ka Parichay
संत कवि दादू दयाल का जन्म फागुन सुदी आठ बृहस्पतिवार संवत् 1601 (सन् 1544 ई.) को हुआ। जन्म स्थान भारतवर्ष की पवन धरा अहमदाबाद में हुआ। कवि संत दादू के जीवन परिचय को लेकर इतिहासकारों में एक असमंजस की स्थिति है। क्योंकि उनके अनुयायियों का मानना है कि संत दादू का जन्म नहीं हुआ था। वह साबरमती नदी में छोटे से बालक के रूप में एक टोकरी में तैरते हुए मिले थे। वैसे भी इतिहासकारों के पास जन्म होने के रहस्य पर आज भी पर्दा ही है। इनके अनुयायियों की संख्या राजस्थान में ज्यादा देखने को मिलती है। कवि संत का अधिकांश जीवन राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित नरेना, सांभर आदि स्थानों पर व्यतीत हुआ। इन स्थानों पर दयाल महाराज की पीठ स्थापित की गई है। दादू दयाल एक कवि थे और उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत समाज कल्याण हेतु रचनाएं रचित की है। इनके काव्य रचनाओं में मुख्य रचनाएं साखी, पद्य, हरडेवानी, अंगवधू शामिल है।
दादू पेशे से धुनिया थे और मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ (1627-58) के समकालीन थे।धीरे धीरे इनकी रूचि धार्मिक प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी। इनका मत मूर्ति पूजा व सांसारिक रीति-रिवाजों से विरक्त था। ये राम नाम का जप किया करते थे और इनका मानना था हम राम नाम के सभी दास हैं और हमें श्री राम नाम का दास ही रहना चाहिए। ऐसे ही अनुयायियों में भी राम नाम को बहुत महत्व दिया गया। राम के हम सभी दास हैं, इसलिए सभी संतो ने दास नाम को श्री दादू पंथ का मुख्य आधार माना। दादू पंथ में जो भी संत हुए उनके नाम के साथ दास जुड़ता चला गया।
संत दादू दयाल महाराज के जीवन का अधिकांश समय राजस्थान में व्यतीत हुआ। चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार इनका जन्म अहमदाबाद में हुआ। 18 वर्ष की आयु तक उन्होंने अहमदाबाद में ही वास किया। 6 वर्ष तक मध्यप्रदेश में घूमते रहे। बाद में राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित नरेना जो कि सांभर क्षेत्र के पास स्थित है. संत का अधिकांश समय नरेना में व्यतीत हुआ।
संत दादू दयाल जी का पारिवारिक जीवन – Sant Dadu Dayal Ji Ka Parivarik Jivan
उनके परिवार का किसी भी राज दरबार से संबंध नहीं था। इतिहासकारों के मतानुसार दयाल महाराज के पारिवारिक परिचय को लेकर आज भी मतभेद बना हुआ है। कुछ इतिहासकार के अनुसार इनके माता-पिता ही नहीं थे, ऐसा कहना उचित समझते हैं। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का मानना है कि इनकी माता का नाम बसी बाई था। इनका परिवार रुई धोने का काम करता था, इसलिए इन्हें धुनिया भी कहा जाता था। इतिहास में संत कवि दयाल के जीवन परिचय को लेकर आज भी इतिहासकारों में बड़ा मतभेद स्पष्ट है। इनके जन्म की गुत्थी बहुत इतिहासकारों ने समझाने की कोशिश की परंतु सुलझा नहीं पाए। ऐसी स्थिति में सभी इतिहासकारों ने अपनी-अपनी खोज के अनुसार इनकी जाती, नाम, रहने का स्थान आदि को भिन्न-भिन्न तरीके से प्रस्तुत किया है। संत दयाल के शिष्य ने लिखा है:-
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः।
उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।
कौन थे संत दादू दयाल जी के गुरु ? – Koun The Sant Dadu Dayal Ji Ke Guru
संत दादू दयाल ने अपनी रचनाओं में गुरु की महिमा का बखान किया है और गुरु बिना घोर अंधेरा ही होता है। इंसान के लिए अपने जीवन को गुरु के बगैर सांसारिक दृष्टि से विरक्त देखना बहुत ही कठिन होता है। यद्यपि इनकी रचनाओं में गुरु की महिमा का बखान हुआ है परंतु उन्होंने कहीं पर भी अपने गुरु के नाम को प्रदर्शित नहीं किया है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब वे 13 वर्ष की आयु में थे तब बुध के रूप में भगवान ने स्वयं इनको दर्शन दिए और उनके स्पर्श मात्र से संत दयाल की सुषुप्ति अवस्था छूट गई। वह संसार के मोह को छोड़कर संसार को सही दिशा और ज्ञान के प्रकाश को बढ़ावा देने हेतु सांसारिक जीवन से विरक्त हो गए।
संत दादू दयाल जी एक निर्गुणी उपासक थे और इन्होंने सत्संग के माध्यम से ही गुरु की महिमा का बखान किया और उन्होंने अपनी रचना में लिखा है:-
हरि केवल एक अधारा, सो तारण तिरण हमारा।।
ना मैं पंडित पढ़ि गुनि जानौ, ना कुछ ग्यान विचारा।।
ना मैं आगम जोंतिग जांनौ, ना मुझ रूप सिंगारा।।
आइये जानते है दादू दयाल के शिष्य कौन थे ? – Dadu Dayal Ke Shishya Kon The
इनके जीवन काल में ही संत प्रवृत्ति से आकर्षित होकर बहुत शिष्य बन चुके थे। इनके मन में एक संप्रदाय को आरंभ करने का ख्याल आया। इन्होंने सांभर क्षेत्र में “परब्रह्म संप्रदाय” की स्थापना की। इनके जीवन काल तक तो यह संप्रदाय इसी नाम से चलती रही। परंतु इनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने इस संप्रदाय का नाम बदलकर “दादू पंथ” रख दिया। उसके बाद से संपूर्ण संप्रदाय दादूपंथी के नाम से विख्यात हुआ। आरंभ में इनके शिष्यों की संख्या 152 थी। यह 152 शिष्य इनके संप्रदाय के अटूट स्तंभ थे। इन शिष्यों ने इस संप्रदाय को पंजाब, हरियाणा,राजस्थान आदि राज्यों तक प्रचार प्रसार किया। वैसे तो इतिहासकारों के अनुसार संत दादू दयाल के बहुत ही शिष्य जीवन काल में ही बन गए थे। उनमें से मुख्य शिष्यों का नाम ग़रीबदास, बधना, रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल था. उनके अधिकतर शिष्यों ने स्वयं की मौलिक रचनाएँ भी संसार को जगाने हेतु प्रस्तुत की है।
संत दादू दयाल जी के शिष्यों के साथ ही शत्रु भी थे। संत दयाल ने अपनी एक रचना में शत्रुओं पर व्यंग रूप में एक छोटी सी रचना लिखी है। उनका मानना है कि शत्रु मेरे भाई जैसे मुझे प्रिय है। क्योंकि यह खुद डूब कर दूसरों को बचाते हैं। निंदक होना बहुत ही सौभाग्य की बात है। क्योंकि निंदक की वजह से ही खुद का निखार बढ़ता है। इन्होंने अपने निंदक साथियों को आजीवन ऐसे ही खुश रहने का आशीर्वाद देते हुए लिखते हैं:-
वाणी :-
न्यंदक वावा बीर हमारा, बिन ही कौड़े वहे विचारा।।
करम कोटि के कुसमल काटै, काज सवारे बिनही साटे।।
आपण बूड़ै और कौं तारै, ऐसा प्रीतम पार उतारे।।
जुगि जुगि जीवे निंदक मोरा, रामदेव तुम करौं निहोरा।।
न्यंदक बपुरा पर उपगारी, नादू न्यंद्या करें हमारी।।
कहते हैं संत दादू दयाल जी ना शिष्य के होते हैं ना शत्रु के होते हैं। वे उन दोनों को खुश रहने का ही आशीर्वाद प्रदान करते हैं। संतो को ना तो खुशी से ना दुख से आसक्ति होती है। संत तो अपने ही भीतर के प्रभु परमात्मा का दर्शन करते हुए सांसारिक आसक्ति से दूर आत्मबोध का दर्शन ही मुख्य समझते हैं। संत हर परिस्थिति में समान रहने की शक्ति नितांत रखते हैं।
कब और कैसे हुई दादू दयाल की मृत्यु ? – Kab Aur Kese Hui Dadu Dayal Ki Martyu
संत दादू दयाल जी की मृत्यु जेठ वदी अष्टमी शनिवार संवत् 1660 (सन् 1603 ई.) को हुई। ऐसे महान संतों का मृत्यु स्थान तीर्थ बन जाता है। यह सौभाग्य पाया जयपुर जिले में स्थित बिचून के पास भैराणा नामक गांव ने। दरशल संत दादू दयाल जी का अंतिम दर्शन भैराणा की पहाड़ियों में किया गया। अनुयायियों का मानना है कि संत दादू दयाल कि कोई मृत्यु नहीं हुई। उन्हें स्वयं परमात्मा ने एक पालकी में बिठाकर अपने परमधाम को ले गए। इस स्थान को “दादू पालका” के नाम से जाना जाता है। यहां पर इनके जन्म और मृत्यु वार्षिक तिथियों पर बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में पूरे भारतवर्ष से श्रद्धालु और अनुयायी अपनी सेवा देने हेतु प्रस्तुत होते हैं। इस धाम में रह रहे संतो के दर्शन से अपने आप को अनुग्रहित करते हैं।
संत दादू दयाल जी महाराज ने अपनी रचनाओं में सांसारिक बंधन से छूटे हुए शरीर को जलाने, दफनाने आदि रीति-रिवाजों को गलत ठहराया। इनका मानना था की इस शरीर से आत्मा छूट जाने के बाद यह शरीर किसी अन्य पशु पक्षियों के काम आए इससे बड़ी सेवा और क्या हो सकती है। इसलिए दादूपंथी मृत्यु के पश्चात शरीर को जलाते और दफनाते नहीं है। केवल पशु पक्षियों के हवाले छोड़ दिया जाता है। जिस स्थान पर मृत शरीर को रखा जाता है। उस स्थान को दादू खोल का नाम दिया गया। इसी खोल में आकर पशु पक्षी इस शरीर को पर्यावरण से मुक्त करते हैं और अपनी भूख मिटाते हैं।
दादू मंदिर स्थल, आरती व दादू वाणी – Dadu Mandir sthal
संत दादू दयाल जी ने अपने जीवन काल में संसार को सांसारिक रीति-रिवाजों मूर्ति पूजा आदि को अन्धविश्वाश बताया। उन्होंने अपनी रचना को संसार के कल्याण हेतु गाया इस रचना को “दादू वाणी” के नाम से जाना जाता है। सभी अनुयायी दादू वाणी को एक चालीसा के रूप में जाप करते हैं। संत दयाल महाराज के भारतवर्ष में कई पीठ और मंदिर स्थापित हैं। परंतु राजस्थान में इनके अधिक पीठ और मंदिर देखने को मिलते हैं। मुख्य तौर पर नरेना-सांभर और भैराणा धाम जहां पर “दादू पालका” नामक मंदिर स्थापित है। दयाल महाराज के सभी मंदिरों में श्रेष्ठता दादू पलका धाम को ही दी जाती है। क्योंकि अंतिम सांस दयाल महाराज ने इसी स्थान पर ली थी। यह स्थान आज पूरे भारतवर्ष में एक तीर्थ के रूप में जाना जाता है। इस स्थान पर संत दयाल महाराज की आखरी तिथि अर्थात मृत्यु दिवस पर बहुत बड़ा आयोजन रखा जाता है। जिसमें देश के कोने-कोने से श्रद्धालु इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हैं।
संत दादू दयाल जी की आरती – Sant Dadu Dayal ji ki Aarti
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