हेलो फ्रेंड्स, हमारे भारतवर्ष में सतयुग,त्रेता युग में काफी दिव्य शक्तियां जन्म लेती है। परंतु अभी चल रहे कलयुग में भी देवत्व का अंश जन्म लेना बंद नहीं हुआ। इस युग में बहुत दिव्य शक्तियों ने जन्म लिया हैऔर सांसारिक कार्य को सिद्ध किया है। इस युग में अलौकिक देवी-देवताओं ने जन्म लेकर संसार के कष्ट हरे हैं। उन्हें अपने चमत्कार से आत्मविभोर किया है। आज हम एक ऐसे ही लोक देवी की चर्चा करने जा रहे हैं। जिनको विश्व में करणी माता के नाम से जाना जाता है। करणी माता का इतिहास बहुत ही रोचक है। तथा इन्हें चूहों की देवी भी कहा जाता है। दोस्तों, क्या आप भी चूहों की देवी अर्थात माता करणी के इतिहास के बारे में जानने की उत्सुकता रखते हैं।
तो आज आपको माता करणी के बारे में संपूर्ण व विशेष जानकारी इस लेख के माध्यम से मिलने वाली है। इस लेख में हम जानेंगे कि माता करणी के पिता कौन थे? कहां माता का जन्म हुआ? माता का मंदिर कहां स्थित है ? माता के बचपन का नाम क्या था? क्या है करणी माता का इतिहास? इस प्रश्नों के रोचक उत्तर आपको इस लेख के माध्यम से मिलने वाले है। इसलिए सभी पाठक माता का इतिहास ध्यानपूर्वक पढ़ें:-
माता का जन्म 20 सितंबर 1387 को होना इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ मिलता। देवी के पिता का नाम मेहाजी तथा माता का नाम देवल देवी था। माता का जन्म स्थान जोधपुर में स्थित सुवाप गांव में हुआ था। करणी माता के पिता मेहाजी कीनिया शाखा के चारण थे। मेहा मंगलिया द्वारा सुवाप गांव उदक में मिला था। जो कि जोधपुर जिले के फलोदी क्षेत्र में है। इसी गांव में लोक देवी करणी माता का जन्म हुआ था। माता की जन्म कहानी बहुत ही विचित्र और रोचक है। मेहाजी और देवल देवी के कोई पुत्र नहीं था। केवल 5 पुत्रियाँ ही थी। मेहाजी को कोई पुत्र नहीं होने की वजह से वे हमेशा चिंतित रहते थे। इसी चिंतित अवस्था में उग्र होकर उन्होंने हिंगलाज माता जो कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान क्षेत्र इनका मंदिर स्थित है। मेहाजी ने माता हिंगलाज मंदिर की यात्रा प्रारंभ कर दी। माता हिंगलाज इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन देती है। तभी मेहाजी ने वरदान स्वरूप अपना सम्मान मांगा। हिंगलाज माता तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गई।
कुछ दिनों बाद देवल देवी को गर्भ हुआ जैसे ही गर्भ प्रसूति के निकट पहुंचा तो मेहाजी ने मोढ़ी मुलाणी और आख्या इदानी नामक दाई को को देवल देवी की देखरेख में लगा दिया। प्रसूति का समय निकल गया। अर्थात 10 महीने, 12 महीने, 15 महीने, 18 माह बीत जाने के बाद आख्या इदानी ने सोचा पता नहीं कब यह बच्चा जन्म लेगा। मैं यहां ज्यादा नहीं रुक सकती। तो मोढ़ी मुलाणी नामक दाई ने ही देवल देवी की आगे देखरेख जारी रखी। एक दिन सपने में देवल देवी को माता दुर्गा ने साक्षात दर्शन दिए और कहा बेटी तुम सब्र रखो मैं जल्द ही तुम्हारी कोख से जन्म लूंगी। करीब 21 माह बाद देवल देवी ने एक शिशु को जन्म दिया। जब मेहाजी ने अपनी बहन से पूछा कि क्या हुआ ? लड़का या लड़की। तो बुआ ने गुस्से में तंज कसते हुए कहा कि फिर से पत्थर हुआ। अर्थात फिर से लड़की हुई है। उन्होंने अपनी अंगुलियां अर्थात मुट्ठी भींच कर गुस्से में यह बात कही, तो उनकी सभी पांचों उंगलियां ऐसे कि ऐसे चिपकी रह गई। उन्होंने सोचा शायद मुझे बादी हो गई। परंतु यह देवी का अपमान करने की सजा थी।
जैसे देवल देवी को पता चला कि पुत्री हुई है। तो उनका मन कुछ उदास हुआ परंतु विधि के आगे वह कुछ नहीं कर सकती थी। तीन दिन बाद नामकरण हुआ तो माता का नाम “रीधु बाई” रखा गया। धीरे-धीरे समय बीतता गया और माता रीधु बाई बड़ी होने लगी। एक दिन रीधु बाई की बुआ पीहर आई हुई थी और वह पांचों बहनों में सबसे ज्यादा रीधु बाई को ही ज्यादा प्यार करती थी। एक दिन वह बाई को नहला रही थी। तब एक हाथ अपाहिज होने के कारण वह सही से नहीं नहला पा रही थी। तभी रीधु ने कहा था आप को क्या हो गया? तो बुआ ने कहा मेरा हाथ सही नहीं है। तभी रीधु ने बुआ का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा हुआ तुम झूठ कहती हो तुम्हारा हाथ तो बिल्कुल ठीक है। ऐसा कहकर जैसे ही माता ने उनका हाथ छुआ तो उसका हाथ पुनः स्वस्थ अवस्था में आ गया। यह चमत्कार देख बुआ ने देवल देवी और मेहाजी से कहा कि आप की पुत्री कोई साधारण पुत्री नहीं है। यह कुछ करण वास्ते इस संसार में आई है। तो बुआ ने इनका नाम रीधु बाई से बदलकर करणी बाई रख दिया। तब से पूरा गांव इन्हें करणी माता के नाम से जानने लगा और आज यह रीधु बाई संपूर्ण विश्व में करणी माता के नाम से जाने जाने लगी।
करणी माता जब धीरे-धीरे बड़ी होने लगी तो समाज की और से मेहाजी पर दबाव बढ़ने लगा। कि अब करणी माता के हाथ पीले करने चाहिए। क्योंकि इतनी जवान बेटी को ऐसे घर में रखना उचित नहीं माना जाता था। मेहाजी पूरे समाज के दबाव में आ चुके थे। मजबूरन उन्होंने अपनी बेटी का विवाह करना स्वीकार किया। परंतु करणी माता के लिए कोई वर नहीं मिल रहा था। पिता की चिंता बढ़ रही थी। तभी माता करणी ने अपने पिता से कहा कि साठिका गांव में केलुजी बिठू के यहां शिवांश अवतार लिया है। उसी से मेरा विवाह होगा। मेहाजी ने माता का आदेश पाकर केलुजी बिठू के पुत्र देपाजी से यहां शादी की बात शुरू कर दी।
देपाजी करणी माता के बारे में जानते थे। तो उन्होंने विवाह को बड़े साधारण रीति रिवाज से करना ही स्वीकार किया। विवाह संपूर्ण होने के बाद बरात वापस लौट रही थी। रास्ते में पानी पीने की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण मेहाजी ने रथ और घोड़ों के साथ चार पानी की मटकी साथ भेज दी। बरात काफी दूर पहुंची तो देपाजी को प्यास लगी। उन्होंने रथ रुकवा कर मटकी से पानी पीना चाहा। परंतु, मटकिया खाली मिली। यह देखकर उन्हें आष्चर्य हुआ। तब करणी माता ने आवाज दी कि आप पीछे देखिए आपके पीछे बहुत ही सुंदर झील में स्वच्छ पानी भरा हुआ है। जैसे ही देपाजी ने पीछे देखा तो आश्चर्यचकित रह गए।
उन्होंने स्वयं उस स्वच्छ जल को पीकर अपनी प्यास बुझाई। देपाजी ने जैसे ही रथ का पर्दा हटाकर देवी को देखना चाहा तो माता ने दुर्गा के रूप में सिंह पर सवार हाथ में त्रिशूल हुए तेजस्वी स्वरूप के साथ उन्हें दर्शन दिए। और कहा कि मैंने तुम्हें भौतिक और अलौकिक दोनों दर्शन करा दिए हैं। मैं आपकी अर्धांगिनी जरूर हूं। परंतु मेराभौतिक शरीर काला मोटा और लंबा-चौड़ा चेहरे वाला है। इसलिए यह मेरा यह शरीर आपके भोग का साधन नहीं है। आप मेरी छोटी बहन गुलाब से विवाह कर लीजिए। वह आपकी ग्रहस्थी संभालेगी। तो देपाजी ने देवी का आदेश मानते हुए माता की छोटी बहन गुलाब से विवाह कर लिया। और खुद संसार की भलाई हेतु गृहस्थ जीवन से विरक्त हो गई।
करणी माता का जन्म बीकानेर में हुआ था और यहां का राजघराना चारण वंश था। बीकानेर के लिए कुलदेवी का यहां जन्म लेना एक सौभाग्य की बात थी। तो माता बीकानेर की राजघराने की कुलदेवी बनी। बीकानेर के राजघराने के राजा महाराज गंगा सिंह ने कुलदेवी माता करणी का मंदिर बनवाया। यह मंदिर बीकानेर से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर देशनोक नामक क्षेत्र में स्थित है। इस मंदिर परिसर में एक गुफा है। जहां पर माता करणी बैठकर तपस्या किया करती थी। यह तपस्या स्थल आज भी मंदिर क्षेत्र में देखा जा सकता है।
दरअसल माता करणी के पारिवारिक सदस्य लखन की मृत्यु हो गई। जब लाखन की मृत्यु हुई तो करणी माता को बहुत दुख हुआ। उन्होंने यमराज से लाखन को पुनर्जीवित करने का आग्रह किया। तभी यमराज ने लाखन को चूहे के रूप में पुनर्जीवित कर दिया। तब से माता करणी के वंशज जो भी मृत्यु को प्राप्त होंगे। वह काबा के रूप में (चूहे) के रूप में माता के मंदिर में ही रहेंगे। इसलिए इस मंदिर में आज हजारों की तादाद में चूहे है। जिन्हें काबा कहा जाता है। इस मंदिर में चूहों की बहुत देख की जाती है। बाहरी जानवर जैसे गिद्ध , चील, बिल्ली आदि चूहों को नुकसान ना पहुंचा सके इसके लिए काफी प्रबंध किए गए हैं।
इस मंदिर परिसर में चूहों की तादाद कितनी है कि श्रद्धालुओं को नीचे परस्पर पर पैर घसीटते हुए मंदिर के दर्शन करने होते हैं। क्योंकि अगर एक भी काबा पैर के नीचे आ गया तो अशुभ माना जाएगा। इस मंदिर में चूहे स्वतंत्र भ्रमण करते हैं,और मंदिर परिसर से कभी बाहर नहीं जाते। यहां पर श्रद्धालु माता को भोग लगाने से पहले चूहों को कुछ प्रसाद वगैरह खिलाते हैं। फिर माता को भोग लगाते हैं। इन चूहों में सफेद चूहे भी है। अगर किसी दर्शनार्थी को सफेद चूहे का दर्शन हो जाता है। तो वह बड़े शुभ और सौभाग्य का प्रति समझा जाता है। यहां पर चूहों की तादाद की वजह से विश्व में यह चूहे की देवी के नाम से भी विख्यात है।
देवी झंगरेची, वन्नरेची, जळेची, थळेची देवी;
मढेची, गढेची देवी पादरेची माय।
कोठेची वडेची देवी सेवगाँ सहाय करे,
रवेची चाळक्कनेची डूँगरेची राय।।1
कुंराणी पुराणी वेद वाणी मै पुराणी कहीं,
व्रसनाणी वृध्धवाणी बुढीबाळावेश।
माढराणी कृतवाणी हंसवाणी ब्रह्मवाणी,
अंद्राणी रुद्राणी भाणी चंद्राणी आदेश।।2
पुरब्बरी पच्छमरी दक्खणां ओतरापरी,
धोमेसरी गोमेसरी योमेसरी धन्न।
शीतंबरी रत्तंबरी पीतंबरी हरीश्याम,
प्रमेशरी इश्शवरी होव थुं प्रसन्न।।3
शुद्राणी वैश्य-आणी खत्राणी ब्रह्माणी सोय,
व्रध्धणी जोगणी बाळ वेखणी विधात।
त्रिभोवणी सतोगणी राजसणी तामसणी,
मोहणी जोगणी तमां नम्मो नम्मो मात।।4
जया सार दया वया त्रनेत्रा विजेया जया,
सम्मैया अम्मैया मैया बणाया समत्त।
कहे इम लांगीदास जोग मैया मया करे,
याद दया अया सत्त आदिय शकत्त।।5
कविराज लांगीदास जी
राजस्थान के बीकानेर जिले से जोधपुर की तरफ जाने वाले रास्ते पर तकरीबन 30 किलोमीटर की दूर सड़क किनारे और रेल मार्ग के पास देशनोक नामक क्षेत्र पड़ता है। इसी क्षेत्र पर माता करणी का भव्य मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर में माता की मूर्ति विक्रम संवत 1595 में स्थपित की गई थी। यह स्थापना चैत्र शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार के दिन हुई थी। बन्ना खाती द्वारा निर्मित माता करणी की मूर्ति जैसलमेर के पीले रंग के पत्थर से बनी हुई है। इस मूर्ति का मुंह लंबोदरा है। कानों में कुंडल। हाथ में त्रिशूल। बाएं हाथ में नरमुंड लटक रहा है। वक्षस्थल पर दो लड़ी मोतियों की माला और दोनों हाथों में चूड़ियां धारण की हुई है।
इस मंदिर में देश-विदेश से पर्यटक और भक्तों की हमेशा भीड़ जुटी रहती है। इस मंदिर में आने वाला हर एक भगत सबसे पहले मंदिर परिसर में स्वतंत्र घूमने वाले चूहे अर्थात काबों के लिए कुछ खाने उपयुक्त प्रसाद जरूर लेकर आते हैं। इस मंदिर में मान्यता है कि अगर किसी के पैर नीचे चूहे की मृत्यु हो गई तो उसे तुरंत चांदी या सोने का चूहा बनाकर मंदिर में भेंट करना पड़ेगा। नहीं तो उन्हें बहुत हानि हो सकती है। ऐसी मान्यताओं के चलते श्रद्धालु यहां पर अपने पैर घसीटते हुए और चूहों की रक्षा मुख्य होती है।
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